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Sunday, 8 March 2015

रंडियों के ठेकेदार और ब्लैकमेलर को ‘पत्रकार’ बनाने वाले जूतों के हकदार हैं


इंसान हूं आखिर कब तक झेल सकता हूं। लिखना तो नहीं चाहिए, लेकिन जब लिखना हो और बोलना हो तो चुप रहना भी नहीं चाहिए। वक्त के हिसाब से अगर इंसान लिखता-बोलता रहे, तो वो समाज के हित में होता है। खबर-मंडी से सिसकती-बिलखती, खुद का बलात्कार कराये हुए एक खबर आ रही है, कि न्यूज-नेशन नाम के देश के नंबर-वन (कथित तौर पर नंबर-1) खबरों के एक अड्डे में बड़ा गड़बड़झाला हो गया है। गड़बड़झाला यूपी के बुलंदशहर जिले में रखे गये स्ट्रिंगर-महाश्य को लेकर (दो लोग) हुआ है।

Wednesday, 19 November 2014

हाल-ए-हरियाणा लाइव-रिपोर्टिंग लंका जिताने गये, “लंगूर” बन कर लौटे!

-संजीव चौहान-

मैं एडिटर क्राइम तो बनाया गया, मगर मोदी के साथ सेल्फी-शौकीन-संपादक की श्रेणी में कभी नहीं आ सका। एक चिटफंडिया कंपनी के चैनल में करीब दो साल एडिटर (क्राइम) के पद पर रहा। मतलब संपादक बनने का आनंद मैंने भी लिया। सुबह से शाम तक चैनल रिपोर्टिंग सब गाद” (जिम्मेदारियां), चैनल हेड मेरे सिर पर लाद देते थे। लिहाजा ऐसे में मोदी या किसी और किसी खास या शोहरतमंद शख्शियत के साथ चमकती सेल्फी लेने का मौका ही बदनसीबी ने हासिल नहीं होने दिया। या यूं कहूं कि, चैनल के न्यूज-रुम की राजनीति में नौकरी बचाने की जोड़-तोड़ में ही चैनल-हेड से लेकर चैनल के चपरासी तक ने इतना उलझाये रखा, कि अपनी गिनती सेल्फी-संपादकों में हो ही नहीं पाई। हां, इसका फायदा यह हुआ कि, मेरे जेहन में हमेशा इसका अहसास जरुर मौजूद रहा कि, रिपोर्टिंग, रिपोर्टर, और फील्ड में रिपोर्टिंग के दौरान के दर्द, कठिनाईयां क्या होती हैं? शायद एक पत्रकार (वो चाहे कोई संपादक हो) के लिए सेल्फी से ज्यादा यही अहसास जरुरी भी