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Friday, 17 June 2011

जूता न उठाओ, जूता जो उठ गया तो

इज्जत की लड़ाई लड़ता-  "जूता"
रोज-रोज जूता । जिधर देखिये उधर ही "जूतेबाजी" । जूता नहीं हो गया, म्यूजियम में रखा मुगल सल्तनत-काल के किसी बादशाह का बिना धार (मुथरा) का जंग लगा खंजर हो गया । जो काटेगा तो, लेकिन खून नहीं निकलने देगा । बगदादिया चैनल के इराकी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने जार्ज डब्ल्यू बुश के मुंह पर जूता क्या फेंका ? दुनिया भर में "जूता-मार" फैशन आ गया । न ज्यादा खर्च । न शस्त्र-लाइसेंस की जरुरत । न कहीं लाने-ले जाने में कोई झंझट । एक अदद थैले तक की भी जरुरत नहीं । पांव में पहना और चल दिये । उसका मुंह तलाशने, जिसके मुंह पर जूता फेंकना है ।
जार्ज बुश पर मुंतज़र ने जूता फेंका । वो इराक की जनता के रोल-मॉडल बन गये । जिस कंपनी का जूता था, उसका बिजनेस घर बैठे बिना कुछ करे-धरे बढ़ गया । भले ही एक जूते के फेर में मुंतज़र अल ज़ैदी को अपनी हड्डी-पसली सब तुड़वानी पड़ गयीं हों । क्यों न एक जूते ने दुनिया की सुपर-पॉवर माने जाने वाले देश के स्पाइडर-मैन की छवि रखने वाले राष्ट्रपति की इज्जत चंद लम्हों में खाक में मिला दी हो । इसके बाद तो दुनिया में जूता-कल्चर ऐसे फैला, जैसे जापान का जलजला । जिधर देखो उधर जूता । सबसे ज्यादा "जूतम-जाती" की हवा चली दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सर-जमीं पर।यानि भारत में ।

जहां तक मुझे याद है, पहला जूता देश के एक हिंदी अखबार के संवाददाता ने मौजूदा केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंवरम् के ऊपर एक प्रेस-वार्ता में फेंका गया । जूता फेंकने वाले पत्रकार की दलील थी कि, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजधानी दिल्ली में भड़के सिक्ख-दंगों की जांच में ढिलाई को लेकर गुस्से का इजहार है। मामले को तूल देने का मतलब पत्रकार या फिर विरोधी दलों की दुकान चलवाने के लिए मुद्दा तैयार कर देना था। सो न चाहकर भी बिचारे गृहमंत्री खून सा घूंट पी कर रह गये। पत्रकार को माफ कर दिया । गृहमंत्री को राजनीति करनी थी । सत्ता के गलियारों में कहीं एक अकेला जूता, आवाज न पैदा कर दे । ये सोचकर गृहमंत्री चुप्पी लगा गये । लेकिन जिस अखबार में पत्रकार नौकरी करता था, वहां राजनीति हो गयी ।
 
पता नहीं देश के गृहमंत्री के मुंह पर फेंका गया जूता, कब अखबार और उसके मालिकों की ओर उड़ने लगे ? और सरकार, अखबार मालिकों से कौन सा पुराना हिसाब इस जूते ही आड़ में पूरा या चुकता कर ले। इसलिए बिना देर किये, जूता फेंकने वाले पत्रकार को नौकरी से बर्खास्त करके "बिचारे" की श्रेणी में ला दिया गया । बेरोजगार करके । सल्तनत भी खुश और अखबार मालिक भी । इससे न सल्तनत को सरोकार था । न अखबार के मालिकान को, कि आवेश में फेंके गये एक जूते का वजन पत्रकार और उसके परिवार पर कितना भारी पड़ेगा ?

इसके बाद तो जिसे देखो, वो ही घर से जूता पहनकर निकलता और जिसका मुंह उसे अपने हिसाब-किताब से ठीक लगता, उसके मुंह पर फेंक आता । जूता नहीं हो गया, मानो घर में मरा हुआ चूहा हो गया । गृहमंत्री पर एक पत्रकार द्वारा जूता फेंकने की नौबत क्यों आई ? जूता फेंकने के बाद मुद्दा ये उछलना चाहिए था । मगर मुद्दा उछला सिर्फ गृहमंत्री पर जूता फेंका गया । एक अखबार के पत्रकार ने फेंका । जिस वजह से फेंका, वो वजह आज भी वैसी ही है। गृहमंत्री भी वही हैं । संभव है कि आरोपी पत्रकार ने जूता भी संभालकर रख लिया हो ।
 
इसके बाद देश के जाने माने योग-गुरु बाबा रामदेव की ओर जूता उछाल दिया गया । भरी सभा में । मामला जूते के इस्तेमाल का था । पैर में नहीं । किसी के मुंह पर । सो जूता, योग-गुरु, और जूते का मालिक सब सुर्खी बन गये । दो-चार दिन सबने चटकारे लेकर "जूता-बाबा" कांड पर चटकारे लिये । बात में जूता, जूता-मालिक के पैर में पहन लिया गया । जूते का मालिक अपने घर में और बाबा अपने आश्रम में खो-रम गये । देश में दो-चार छोटे-मोटे और भी जूता-कांड हुए । ये अलग बात है कि बदकिस्मती के चलते वे उतनी सुर्खी पाने में कामयाब नहीं हो सके, जितने बाकी या पहले हो चुके जूता-कांडों को चर्चा मिली ।

अब फिर देश के एक कद्दावर नेता को भीड़ के बीच जूतियाने की "बंदर-घुड़की" दी गयी । मारा या उनकी ओर जूता उछाला नहीं गया । शायद ये सोचकर कि बार-बार जूता फेंकने से, जूता और जूते की मार का वजन कम हो जाता है । कुछ दिन पहले ये बात भारत आये इराकी पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने मुझे भी इंटरव्यू के दौरान सुनाई और समझायी थी । मुंतज़र साहब की दलील थी, कि बार-बार, और हर-किसी पर जूता फेंकने से, जूते की चोट कम हो जाती है । या यूं कहें कि रोज-रोज जूता फेंकने से जूते की "इज्जत" को ठेस पहुंचती है ।

इस बार जूते के शिकार होते होते बचे कद्दावर नेता जनार्दन द्वेदी । देश की राजधानी दिल्ली में । और जूता दिखाने वाला था सुनील कुमार नाम का कथित पत्रकार । कथित इसलिए कि देश की पत्रकार जमात ने ही इस बात से इंकार कर दिया कि वो पत्रकार भी है । पत्रकार जमात की दावेदारी के मुताबिक हमलावर एक शिक्षक है । जूता उठाने वाला कौन है ? इससे ज्यादा जरुरी सवाल ये है कि उसने जूता उठाया क्यों ? उसने अपनी मर्जी से जूता उठाया, या फिर किसी विरोधी या असंतुष्ट ने उसे उकसाकर, नेता जी के ऊपर जूता सधवाया । सवाल ये भी पैदा होता है कि जब जूता उठा लिया, तो फिर उछाला, या नेता जी पर जड़ा क्यो नहीं ?

जो भी हो । न तो मैं जूता फेंकने वाला हूं । न ही किसी को उकसाकर, किसी और पर जूता फिंकवाने वाला । चाहे कोई किसी पर फेंके और किसी के मुंह पर जूता पड़े । बे-वजह फटे में भला टांग क्यों अड़ाऊं ? हां इतना जरुर लग रहा है, कि अगर देश में इसी तरह जूते का बेजा इस्तेमाल होता रहा तो, वो दिन दूर नहीं होगा, कि आपके पैर को अपना जूता कितना ही भारी लगे, लेकिन जिसके मुंह पर जूता फेंका जायेगा, उसके मुंह के लिए जूते का वजन कम हो जायेगा । मैं तो खुले दिल-ओ-दिमाग से यहीं कहूंगा कि जूते का हर समय इस्तेमाल ठीक नहीं । वरना एक दिन वो आ जायेगा, कि आज जिस जूते से इंसान खौफ खाता है । आने वाले कल में वही जूता अपनी "इज्जत" बचाने की लड़ाई लड़ने के लिए विवश हो जायेगा । और एक दिन वो भी आ जायेगा जब देश की "जूता-बिरादरी" के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले संगठन गली-कूचों में पैरोडी गाते फिर रहे होंगे- जूते को न उठाओ, जूते को रहने दो, जूता जो उठ गया तो...जूता कहीं का न रह जायेगा...।