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Monday 8 August 2011

जेल का अमिताभ बच्चन मैं ही हूं!


        मेरी जेल डायरी-मनीष दीक्षित

एक गोली-एक आदमी
हां! जेल में राजनीति होती है
शुरु-शुरु में जेल बहुत अखरी थी
जेल ज़लालत है  
 जेल का नाम सुनते ही पसीना आ जाता है। खासकर उसे, जिसका अपराध से कभी कोई वास्ता ही न रहा हो। बात भी सही है। जेल, जेल है। कोई पिकनिक स्पॉट नहीं। आखिर क्या है जेल, और वहां रहने वालों की ह़कीकत? क्यों सांस फूलने लगती है, आम इंसान की जेल के नाम से? क्या आलम होता है, उस इंसान के दिल-ओ-दिमाग का, जो पहली बार रखता है, जेल की देहरी पर कदम? कैसे गुजरते हैं, किसी के दिन और रात जेल की सलाखों के पीछे? आखिर क्यों बढ़ जाती है, जेल की देहरी पर पांव पड़ते ही इंसान के दिल की धड़कन?
 इन्हीं तमाम सवालों के जबाब पाने की कोशिश शुरु की है
न्यूज एक्सप्रेस चैनल के एडिटर(क्राइम) संजीव चौहान ने।
भारतीय टीवी के इतिहास में पहली बार जेल-डायरी के माध्यम से। देश की तमाम उन जेलों की यात्रा करके, जिन्हें आपने आज तक सिर्फ टीवी, रेडियो, अखबारों में पढ़ा, सुना और देखा भर है। इस बार जेल-डायरी में हम आपको रु-ब-रु करा रहे हैं, राजस्थान के मनीष दीक्षित से।

46 साल के मनीष सुप्रीम कोर्ट से मुजरिम करार दिये जा चुके हैं। 23 फरवरी, सन् 1994 को मनीष ने दिन-दहाड़े अपने से उम्र में कुछ साल बड़े युवक को गोली से उड़ा दिया था। सर-ए-बाजार। भीड़-भाड़ वाले चौराहे पर। रंजिश के चलते। मनीष के हाथों मौत का शिकार हुआ युवक कोई अपराधी या फिर जानी-दुश्मन नहीं, बल्कि उसका अपना व्यवसायिक और विश्वासपात्र दोस्त था।  इस सनसनीखेज हत्याकांड ने राजस्थान पुलिस की चूलें हिलाकर रख दी थीं। क्योंकि सरेआम हत्याकांड को अंजाम देने के बाद मनीष दीक्षित साथियों सहित मौका-ए-वारदात से भाग गये थे।
बकौल मनीष - हत्याकांड को अंजाम देने के बाद मैं दिल्ली भाग गया। दिल्ली में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगा। कुछ दिन बाद दिल्ली के अलका होटल में जाकर छिप गया। 12 जुलाई सन् 1994 को राजस्थान पुलिस के करीब 70-80 हथियारबंद जवानों ने होटल को चारों ओर से घेर लिया। खुद को पुलिस से घिरा पाकर मैंने कोई विरोध नहीं किया। गिरफ्तार कर मुझे जयपुर ले जाया गया।
बंगलौर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके युवक ने ऐसी आपराधिक वारदात को अंजाम दे दिया, जिसने राजस्थान राज्य की पुलिस की नींद उड़ा दी थी। रोज अखबारों में छप रही खबरों से पुलिस की मिट्टी पलीत हो रही थी। हत्यारों को पकड़ने की मांग को लेकर शहर की सड़कों पर जनता उतर आयी थी। हालात बिगड़ने की आशंका को ध्यान में रखकर, हत्याकांड की जांच-पड़ताल राज्य के पुलिस महानिदेशक ने खुद की निगरानी में शुरु करवा दी। करीब छह महीने के अंतराल के बाद, जब मनीष दीक्षित को दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया गया, तभी शहर में शांति हुई। और पुलिस ने भी चैन की सांस ली।जवानी का जोश था। बंगलौर से सिविल इंजीनियरिंग पढ़कर निकला था। रिवॉल्वर का लाइसेंस अपने नाम था। उम्र यही कोई 23 साल के आसपास रही होगी। खाते-पीते घर से था। किसी से डरना-दबना सीखा नहीं था। इसे अल्लहड़पन कहिए या मेरा बचपना। उसी दौरान कालोनी में रहने वाला एक युवक मिल गया।  शहर में उसका भी रुतबा मुझसे कम नहीं था। उम्र में वो मुझसे कुछ साल बड़ा जरुर था। उसने सही रास्ता दिखाने के बजाये इधर-उधर के रास्ते सुझाने शुरु कर दिये। जो वो कहता था, वही अच्छा लगता था। उसके साथ मिलकर कुछ समय तक ज़मीन की खरीद-फरोख्त का काम किया। कुछ समय बाद जयपुर के एक-दो बड़े हीरा-व्यापारियों से संपर्क हुआ। उनके मश्विरे पर ज्वेलरी के कारोबार में पांव रख दिया। ज्वेलरी के काम में काफी पैसा लगाया था। जिसको मौत के घाट उतारा, वो हमारा हीरे-जवाहरात के बिजनेस का राइवल था। उसका मार्केट पर हमसे ज्यादा होल्ड था। बस कुछ लोगों ने समझा दिया मुझे। अगर इसे रास्ते से हटा दोगे, तो फिर तुम्हारे रास्ते में और कोई बाधा नहीं आयेगी। आगे कभी भी। दिमाग पर धन कमाने की धुन सवार थी। सो आगे-पीछे कुछ नहीं देखा। रास्ते से किसी को हटाने में भला कितनी देर लगनी थी। दस पंद्रह दिन उसका पीछा किया। एक दिन मौका मिल गया। उसके साथ एक अंग्रेज भी था। मैने जैसे ही उसके सिर में गोली मारी, उसके साथ मौजूद अंग्रेज और भीड़ भाग खड़ी हुई।
जयपुर जेल में आजीवन सज़ा काट रहे मनीष दीक्षित बिना रुके अपनी जेल-डायरी के पन्ने हमें खुद-ब-खुद खोलकर पढ़वाने लगते हैं। बेखौफ, बे-झिझक। पूछने पर बताते हैं- उस शख्स की हत्या करना ही ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल हो गयी। खानदान में मुझसे पहले कोई बदमाश नहीं बना था। न आगे बनेगा। कहने का मतलब ये कि परिवार का मैं पहला और आखिरी बदमाश मैं ही होऊंगा। मनीष की नज़र में जेल की परिभाषा- जेल बहुत अच्छी जगह है। जेल हर आदमी को जाना चाहिए। अगर जीवन को सफल बनाना है। लेकिन सिर्फ 6-8 महीने के लिए। जब आदमी 6-7 महीने जेल में काटकर बाहर निकलेगा, तो उसका लाइफ स्टाइल, बिलकुल चेंज हो जायेगा। गारंटी देता हूं।
जयपुर जेल में उम्रक़ैद की सज़ा भुगत रहे मनीष के मुताबिक- जेल जाने वाले का सोशल बॉयकाट हो जाता है। मैंने भी मर्डर करने से पहले जेल नहीं देखी थी। हमें नहीं पता था कि अंदर से जेल क्या बला होती है?  हां ये जरुर है कि मेरे हाथ से हुए किसी के क़त्ल ने मेरी भी हंसती-खेलती ज़िंदगी का क़त्ल कर दिया। क़त्ल को लेकर मनीष को अफसोस है। बताते हैं कि जो आदमी उनकी गोलियों से मारा गया, वो गलत मरा। किसी और के गुमराह करने पर किसी ऐसे की जान ले बैठा, जिसे नहीं मारना चाहिए था। अगर मेरे सलाहकारों को मरवाना ही था, तो किसी ऐसे को मारवाते, जो वाकई मरने के लायक होता। एक सिविल इंजीनियरिंग पासआउट युवा के हाथ में हथियार, बात कुछ गले नहीं उतरती आसानी से? पूछने पर मनीष कहते हैं- छोड़िये साहब। ये एक काला इतिहास है। हां ये जरुर है कि जब तक मेरे दिमाग पर जवानी का जोश हावी रहा तब तक बस मैंने यही सोचा- एक आदमी और एक गोली। अब ये सब अच्छा नहीं लगता। वक्त गुजर गया। बुरा समय था। भूलने दीजिए उसे।
बातचीत के दौरान मनीष इस तथ्य से इनकार करते हैं कि उन्होंने हत्या दौलत की रंजिश के चलते की। उनके मुताबिक ये व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा का दुष्परिणाम था। हां ये जरुर है कि मर्डर हो गया। मारने की सोची। मार डाला। भरे बाजार में। बेधड़क-बेखौफ होकर। पहली बार जब जेल के सीखचों के दूसरी ओर मां को खड़ा देखा तो दिल पर क्या गुजरी? पूछने पर बताते हैं- मां की आंखों में आंसू थे। मेरी आंखों में भी आये। मगर अपने आंसूओं को मैं पी गया। क्योंकि मैं ये नहीं साबित करना चाहता था मां को, कि क़त्ल करने के बाद, जब जेल मिली, तो जेल में उनका बेटा खुद को कमजोर महसूस कर रहा है। इससे मां का दिल और दुखता। जेल में परेशानियां बहुत आईं, लेकिन कभी परिवार के साथ उन्हें नहीं बांटा।
पहली बार जब जेल गये तो मन में क्या कुछ बातें आ रही थीं ? सवाल का जबाब देने के लिए मनीष कुछ शांत हो जाते हैं। फिर बोलना शुरु करते हैं, बिना रुके हुए- पहले कभी जेल नहीं देखी थी। सोच रहा था पता नहीं कैसी होगी जेल। कैसे कटेगी रात। कैसे लोगों से पड़ेगा जेल के भीतर पाला। गिरफ्तारी के बाद मुझे पुलिस ने जहां बंद करके रखा वो कस्टडी थी। बाहर पहरा था। जैसा किसी वीआईपी या वीवीआईपी के लिए सुरक्षा बंदोबस्त किया जाता है। एक इंस्पेक्टर, दो राइफल गार्ड की ड्यूटी लगा दी गयी। मेरे कमरे के बाहर। इस हिदायत के साथ कि मुझे किसी का दिया हुआ कुछ न तो खाना है न ही पीना है। पहरेदारी में लगे पुलिस वालों से मैंने पूछा यार जेल कैसी होती है क्या होता है जेल में? तो उन्होंने एक की चार नमक-मिर्च लगाकर समझा दीं। एक सिपाही बोला जेल में जाते ही हाथ में झाड़ू थमा देंगे। दूसरा बोला जेल में नये क़ैदी से शौचालय और गटर साफ कराये जाते हैं। ये तो जेल में इतने साल रहने के बाद पता चला है, कि वे मुझे किस क़दर जेल से नाम से भयभीत कर रहे थे।
सही बताऊं भाई साहब जेल जाने वाले की जेल में भले कम दुर्गति हो। लेकिन समाज उसे कहीं का नहीं छोड़ता। मर्डर करने के बाद जेल में मेरी इंट्री क्या हुई, पास-पड़ोस वालों ने मनीष दीक्षित का नाम ही जुबान पर लाना बंद कर दिया था। कई तो जिगरी यार भी किनारा कर गये। जिस दिन मैं जेल गया, उस दिन मेरे चारो ओर पुलिस फोर्स का एक बड़ा एस्कोर्ट चल रहा था। हां चारों ओर पुलिस के लंबे-चौड़े तामझाम से मेरी फोकट में पब्लिकसिटी खूब हो गयी। जेल में पांव रखा तो जेल की देहरी से ही शोर मच गया, कि मनीष दीक्षित आ गया है। अगर एक दो सिपाही सुरक्षा में लगे होते तो भला कौन जानता मनीष दीक्षित को।
जेल के भीतर पहुंचा। वहां पहले से मौजूद एक क़ैदी ने मुझे कंबल, लोटा-थाली, दरी दे दिये। सामान लेकर क़ैदी बैरक में गया। तो वहां पहले से ही कई दबंग जमे थे। कुछ ताश खेल रहे थे। काफी शोर मच रहा था। लेकिन जैसे ही उन्हें मेरा नाम पता चला। तो सन्नाटा हो गया। मैंने दिन-दहाड़े शहर में किसी को गोलियों से भून डाला है, ये खबर अखबार के जरिये मुझसे पहले ही जयपुर सेंट्रल जेल में पहुंच चुकी थी। इसका मुझे फायदा ये मिला, कि किसी पुराने क़ैदी ने मुझसे पहली रात चूं-चपड़ नहीं की। बाद में तो जेल के भीतर पहले से बंद मेरे साथ क़त्ल में शामिल मेरे और साथी मिल गये। फिर कोई समस्या पैदा न होनी थी, न ही हुई।
मतलब जेल में मनीष का सिक्का पहले ही दिन चल गया! यानि आप जेल के दबंग साबित हो गये। पूछने पर मनीष कहते हैं- नहीं नहीं। ऐसा कुछ नहीं है। पहली रात कैसी गुजरी जेल में? पूछने पर मनीष बेबाकी से बताते हैं- ध्यान नहीं साहब। कोर्ट-कचहरी के धक्के, पुलिस और जनता की भीड़। कई दिनों बाद जेल में पहुंचने पर इन सबसे मुक्ति मिली थी। बुरी तरह से थका हुआ था। सो रात को बेसुध होकर गहरी नींद सो गया। करीब सोलह साल से जेल में बंद मनीष, क़ैद से बाहर आने पर कुछ लिखना चाहते हैं। unforgettable moment of my life…..जेल और आउटसाइड द जेल।
जेल में रहते हुए भी मनीष दीक्षित के शौकों में कोई कमी नहीं आई है। हर वक्त काला चश्मा लगाने के शौकीन है। पूछने पर बताते हैं- चश्मा लगाना मेरा शौक है। चश्मों का घर से जेल तक अच्छा खासा कलेक्शन है। दुनिया में अपनी बेटी से सबसे ज्यादा प्यार करने वाले मनीष बताते हैं, कि मुसीबत के दिनों में मां-बाप और पत्नी ने बहुत साथ दिया। जेल-डायरी में बातचीत के दौरान मनीष कहीं से भी अपराधी प्रवृत्ति के नहीं लगे, पूछने पर बताते हैं- आदमी तो अभी भी मार सकता हूं मैं। लेकिन अब जरुरत के हिसाब से मारूंगा। पहले वेबकूफी में मार डाला था, अब ऐसी जल्दबाजी नहीं करूंगा।
जेल-डायरी में सलाखों के पीछे की ज़िंदगी का सच दर्ज कराने के बाद मनीष अपनी पसंदीदा लाइनें सुनाना नहीं भूलते हैं-
मैदान-ए-इम्तिहां में घबरा के हट न जाना,
तामील-ए-ज़िंदगी है, चोटों पे चोट खाना
मुझे ग़म इस बात का नहीं, कि बदल गया जमाना
मेरी ज़िंदगी तुझी से है, कहीं तू बदल न जाना......



1 comment:

  1. Janm se koi aparadhi nahi hota..... vakt aur halat use jurm ke lye majbur karte hain. nasamjhi me huyi lagtiyon ke manushaya afasos karta hai... Apke manish se sakshatkar se yahi pratit hota hai.

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