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Tuesday, 28 August 2012

शिरीन + फरहाद= महा-बकवास




नंगेपन का नायाब "नमूना" 

संजीव चौहान

26 अगस्त 2012 को परिवार के साथ नोएडा के स्पाइस मॉल में भटक रहा था। सोच कर परेशान था, कि कौन सी पिक्चर देखूं? क्यों देखूं? पोस्टर कई फिल्मों के देखे। सोचा जोकर देख लें। हंसी-मजाक वाली होगी। कुछ समय से लिए दिमाग दुरुस्त हो जायेगा। बेटियां (माही-शगुन) देखना चाह रही थीं- थ्री डी- नेमो। पत्नी और मैं कोई हिंदी फिल्म तलाश रहे थे। शिरीन-फरहाद के पोस्टर पर नज़र पड़ी। पोस्टर में फरहा खान और वोमन ईरानी कॉमेडी मूड में एक पेड़ के नीचे सफेद कपड़ों में खड़े दिखाई दिये। फरहा खान पेशेवर कोरियोग्राफर थीं। हैं। रहेंगीं। इसलिए उनकी शकल का हमारे दिमाग पर खास असर नहीं पड़ा। वोमन ईरानी की छवि जरुर दिमाग को घुमाने में कामयाब रही। सोचा वोमन हैं, तो फिल्म में कॉमेडी होना कॉमन है। 
बस वोमन ईरानी की शक्ल के चक्कर में चार टिकट लिये। और घुस गये शिरीन-फरहाद देखने। मूड फ्रैश करने। फिल्म शुरु हुई। इंदीरा जी वाला करेक्टर परदे पर आया। बेटियों के मुंह से हल्की-फुल्की हंसी सुनाई दी। मैं और पत्नी शांत रहे। ज्यों-ज्यों फिल्म का वक्त घटता गया, त्यों-त्यों मेरा और पत्नी मंजू के सिर का दर्द बढ़ता गया। फिल्म में ले देकर (शायद सस्ते और उधार के थे इसलिए) वोमन ईरानी और फराह खान दो ही चेहरे। बार-बार उन्हें देखा। तो ऐसे पक गये, जैसे मानो भूसे की भुसौरी में छिपाकर रखा गया आम। खैर अब आधी फिल्म छोड़कर तो बाहर निकल नहीं सकते थे। मेहनत की कमाई थी। जो मिट्टी में मिलते हुए देखना मजबूरी थी हमारी। हम समझ चुके थे, कि फिल्म में आगे भी कुछ नहीं होगा। फिर भी पिक्चर हॉल  में बैठकर शिरीन-फरहाद जैसी घटिया फिल्म देखना हमारी मजबूरी थी। क्योंकि हमने पैसे खर्च किये थे। हम नहीं चाहते थे, कॉमेडी के नाम पर ब्रा-पेंटी की भौंड़ी नुमाइश। फिर भी हम वो सब देख रहे थे। क्योंकि हमारी जेब से दाम खर्च हो चुका था। जब रुपये खर्च हो ही गयी, तो फिर न देखनेसे भी कौन सा भला होने वाला था। 
लिहाजा अगर यह कहूं कि पैसे देकर मैंने मुसीबत (शिरीन फरहाद फिल्म) खरीद ली थी, तो कदापि गलत नहीं होगा। रही-सही कसर तब पूरी हो गयी, जब कॉमेडी के नाम पर फिल्म की इकलौती हीरोईन और पेशेवर कोरियोग्राफर फराह खान एक गाने के बोल में खुद ही अपनी बजबाती हुई दिखाई देती हैं। गाने के बोल थे...मेरी तो बज गयी...। अब जब फिल्म की हीरोईन खुद ही गा रही हो, कि उसकी बज गयी या बजा दी गयी, तो फिर हमें भी ज्यादा कोफ्त नहीं होना चाहिए, इस बात का कि भौंडी-कॉमेडी हमने देखी पैसे खर्च करके। बस शिरीन फरहाद के बारे में एक बात जरुर है, कि यह फिल्म अगर सी-ग्रेड की कटेगरी में रखी जाती, तो फराह खान की आत्मा को ज्यादा शकून मिलता। फिल्म में जो कुछ उन्होंने किया है, उसे कॉमेडी नहीं, फूहड़पन ही कहेंगे। या फिर इस फिल्म की पटकथा को स्क्रिप्ट राइटर की ओछी मानसिकता का सर्वोत्तम नमूना।



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