ए के हंगल। मेरे बुजुर्ग। मेरे दादा तुल्य। भारतीय सिनेमा के “खास” अभिनेता। नाटकों के लिए कोई भी हद पार करने वाला शख्स। परम आदरणीय हंगल साहब ने शरीर त्याग दिया। या यूं कहें कि हंगल साहब ने “जिन्नाती दुनिया” से निजात पाने के लिए खुद को समय की नजाकत के साथ अलग कर लिया। कौन कहता है? ए के हंगल “मर गये”। कौन कहता है “हंगल का देहांत हो गया”? कौन कहता है भारतीय फिल्मों का चरित्र अभिनेता हंगल दुनिया से चला गया? कौन कहता है कि एके हंगल अब हमारे बीच नहीं रहे? कौन कहता है कि हंगल साहब हम सबको अलविदा कह गये?
यह सब वो लोग कह रहे हैं, जिन्हें धरती पर जीने का सलीका ही नहीं आया। या यूं कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, कि जो खुद को “जिंदा” बता रहे हैं...वास्तव में वे खुद ही “जिंदा लाश” हैं। जिनके सुनने, सोचने-समझने की ताकत ही खतम हो चुकी है। वे सिमट कर रहे गये हैं, सिर्फ और सिर्फ इस दुनिया में वो सब कर गुजरने के लिए, जो एक इंसान को कहीं से कहीं तक शोभा नहीं देता।
मैं आज तक हंगल साहब से रु-ब-रु नहीं हुआ। बस परदे पर अखबारों में देखा-सुना। उनके बारे में कुछ साहित्य पढ़ा। इससे ज्यादा हंगल साहब के बारे में कुछ नहीं पता। हां जब 15-16 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में रात को 9 से 12 के शो में “शोले” देखी। तो उसमें हंगल साहब देखे। रुपहले परदे पर। नावल्टी टॉकीज में। अब तो इस नावल्टी टॉकीज को भी बंद हुए दो दशक से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है।
बस शोले के उस शो को देखने के बाद ही मैं समझा कि हंगल साहब भी दुनिया में ऐसी कोई शख्शियत हैं, जो मेरे दादा जी की ही तरह हैं। क्योंकि मैंने अपने दादा जी को नहीं देखा था। इसलिए हंगल जी की छवि मेरे जेहन में मेरे दादा की सी बस यूं ही बैठती चली गयी। जब तक बचपने के दौर में रहा, कल्पनाओं में डूबा रहा। मेरे दादा अगर जिंदा होते तो शायद वो भी हंगल साहब की ही तरह होते।
अब हंगल साहब ने जालिम दुनिया से किनारा कर लिया। चुपचाप। बिलकुल किसी शोर-शराबे के । महज इसलिए ताकि उनकी इज्जत में त-उम्र लगे रहे गंभीरता के चार चांद में से कोई भी चांद उनसे जुदा न हो जाये। इस बेगानी दुनिया से दूर थी हंगल साहब की दुनिया। दूर थे हंगल साहब “बॉलीवुड” की उस रंगीन, आंखे चुंधिया देने वाली दुनिया से, जिसमें आज शायद ही कोई अभिनेता-अभिनेत्री “अंधा” होने से बचा होगा।
हंगल साहब जब हमसे दूर हुए, तो भारतीय “मीडिया” के संचालकों के घर में भी मातम छा गया। हंगल साहब के अलविदा कहने से नहीं। शायद इसलिए कि सभी मीडिया घरानों के मालिकों की “मां” एक ही दिन मर गयी होगी। शायद इसीलिए वे हंगल साहब को छोड़कर अपनी मां के मातम/ जनाजे में शामिल होने में व्यस्त थे। और हंगल साहब को भूल गये। कोई बात नहीं, भारतीय फिल्म इंडस्ट्री, भारतीय मीडिया हंगल को अगर भूल जायेगी, तो मैं तो नहीं भूला हूं। मैं हंगल साहब के साथ हूं। अपनी कोई खास हैसियत न रखने के बाद भी। मेरा साथ होना हंगल साहब को बलशाली नहीं बनायेगा। बल्कि हंगल साहब का साथ मुझे हमेशा अहसास कराता है...कि किसी बुजुर्ग का हाथ है, था और आइंदा भी रहेगा...मेरे सिर पर। सादर.....
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