To subscribe Crime Warrior Channel on Youtube CLICK HERE

Sunday, 19 May 2013

जैसा मैंने देखा....

पुलिस खराब है या उसकी छवि- मैं और मेरी माथापच्ची
उप-सूचना निदेशक और बरेली रेंज के पुलिस महानिरीक्षक  

देश के सबसे बड़े सूबे यानि उत्तर प्रदेश की  सल्तनत इस माथापच्ची में जुटी है, कि खराब सूबे की पुलिस है या फिर पुलिस की छवि! मेरा मानना है कि, पुलिस अगर खराब होती, तो सूबा दंगा-फसाद और क़त्ल-ए-आम की भेंट चढ़ चुका होता। सूबे में सरकार है। सबसे ज्यादा आबादी इसी सूबे की है। फिलहाल इस सवाल का जबाब हासिल करने की उम्मीद में सूबे की सरकार ने अब प्रेस-पुलिस को आमने-सामने बैठकर दो-टूक बात करने को कहा है। न पुलिस मुंह छिपाये और न मीडिया पुलिस के पीछे खुद को कोतवाल समझकर दौड़ाये। बेहतर है कि, जब मीडिया को ही सब कुछ पता है, मीडिया के ही हाथ में है, किसी की भी छवि बनाना और बिगाड़ना, तो फिर क्यों न आमने-सामने ही बैठकर बात हो जाये।

इस सवाल के जबाब की खोज में उत्तर प्रदेश पुलिस ने दिन-रात एक किया हुआ है। इसी क्रम में सूबे के उप-सूचना निदेशक अशोक कुमार शर्मा और उत्तर प्रदेश पुलिस पब्लिक रिलेशन सेल प्रभारी नित्यानंद राय सूबे भर के मीडियाकर्मियों से रु-ब-रु हो रहे हैं। अकेले नहीं, बल्कि परिक्षेत्र (रेंज) के पुलिस महानिरीक्षक, उप-महा निरीक्षक, जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, पुलिस अधीक्षक, उपाधीक्षक, निरीक्षक, उप-निरीक्षक, सहायक उप-निरीक्षक, हवलदार और सिपाही तक के साथ। साथ में संबंधित रेंज-जिले के पुलिस विभाग के मीडिया अनुभाग (पीआर सेल) में तैनात अधिकारी-कर्मचारी भी होते हैं।

18 मई 2013 को बरेली जिला पुलिस लाइन में इसी क्रम में पुलिस विभाग और मीडिया के लोग इकट्ठे हुए। मकसद वही कि, खराब सूबे की पुलिस है या फिर मीडिया की 'अति'।  सबने अपने-अपने विचार रखे। जिसके दिल में जो था, कहा-सुना। बेफिक्र और बेबाकी के साथ। बिना किसी लाग-लपेट के। मीडिया का पक्ष था कि, उसे वक्त पर खबरों की जानकारी नहीं मिलती है...इसलिए अपनी छीछालेदर के लिए पुलिस जिम्मेदार खुद है। पुलिस का कहना था, इसमें पुलिस की कोई गल्ती नहीं है। परेशानी इस बात की है कि, पुलिस महकमे ने कानून-व्यवस्था बनाये रखने की ट्रेनिंग ली है। मीडिया को 'मैनेज' और 'खुश' रखने की ट्रेनिंग पुलिस को नहीं दी जाती है। बस यही वह बिंदु था, जहां सबकुछ साफ हो गया।


इस मौके पर मैं भी मौजूद था। सबकी बात ध्यान से पहले सुनी। फिर बोलने को कहा गया तो बोला भी। बस मेरा बोलना था, जैसे आग में घी का काम कर गया। मेरा मत था कि, न पुलिस खराब है। न मीडिया मतिभ्रष्ट। समस्या है पुलिस और मीडिया के बीच स्वाभिमान की लड़ाई। एक दूसरे को नीचा दिखाने की ललक। जिसका जहां दांव लगा, दूसरे को पटखनी देने का मौका तलाशने का। दूध की धुली न मीडिया है न पुलिस। बस मौका हाथ आने की बात है। पुलिस यहां अक्सर पिछड़ इसलिए जाती है, क्योंकि वो अच्छी मीडिया मैनेजर नहीं है। मीडिया को सड़क चलते गाहे-बगाहे पुलिस की 'छीछालेदर' करने का मौका मिल जाता है। जिस पत्रकार ने खबर का 'इंट्रो' लिखना भी नहीं सीखा है, उसके भी हाथ अगर पुलिस लग गयी, तो समझो पुलिस का नंगा होना तय है। भले ही मीडिया का यह 'नवजात शिशु' रोज सुबह और शाम की एडिटोरियल मीटिंग में छोटी-छोटी खबर छूटने पर 'उस्ताद'  की सौ-सौ सिर झुकाकर सुनता हो।  पुलिस वाले ने अगर तरीके से लिफ्ट देने में कमी कर दी, तो उसकी खैर नहीं। 







मेरा मानना है कि मीडिया में यह प्रवृत्ति कतई नहीं होनी चाहिए, मगर यह प्रवृत्ति इस कदर कूट-कूट कर भर चुकी है, कि अब समय मीडिया को भी 'ट्रेनिंग' का है। क्राइम-रिपोर्टरी की दुनिया में चेले को उतारने से पहले उस्ताद तय कर लें, कि शिष्य क्या किसी आईपीएस से बात करके खबर निकालने के लायक हुआ भी है या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि, पुलिस अफसर से कुछ ऐसा सवाल दाग दे, कि न घर का रहे न घाट का। लिहाजा उतारने इज्जत चला पुलिस की, और किरकिरी अपनी करा बैठा। यह अलग बात है कि, रिपोर्टर की इस बेहूदा हरकत को जानते हुए भी पुलिस अफसर या कर्मचारी  नजरंदाज कर जाये। जिस दिन बरेली पुलिस लाइन में मीडिया और पुलिस आमने-सामने बैठे थे। उसी दिन बरेली से छपने वाले एक नंबर वन का दावा करने वाले हिंदी दैनिक में मैंने एक खबर पढ़ी। खबर को प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से छापा गया था।

"पुलिस कस्टडी से बदमाश फरार। इन बदमाशों को 
अदालत ने पुलिस को रिमांड पर सौंपा था। पुलिस 
इन बदमाशों को जेल में दाखिल करने ले जा रही थी।"जरा सोचिये कि अगर अदालत ने पुलिस को बदमाश रिमांड पर दिये थे, तो फिर बदमाश जेल में दाखिल करने क्यों ले जाये जायेंगे? इससे साफ जाहिर है कि, जिस पुलिस की मीडिया ऐसी-तैसी करके दांत निपोरता है, या शेखी बघारता है, उस मीडिया में कितने काबिल रिपोर्टर मौजूद हैं। चलिये खबर रिपोर्टर ने अपने अनुभव और ज्ञान के अनुसार लिख दी। डेस्क पर कॉपी जांचने वाला भी कमोबेश रिपोर्टर के ही स्तर का रहा होगा। वरना अपनी गलती को घर के अंदर ही सुधार लिया जाता, तो बात बाजार में न जाती। अब अगर मीडिया के ऐसे ही कुछ ज्ञानवान रिपोर्टर पुलिस की ऐसी-तैसी करने पर तुल जायें, तो सोचिये रिजल्ट क्या होगा!वाकई पुलिस कितनी भी पढ़ी-लिखी या फिर जानकार क्यों न हो, उसकी मीडिया में ऐसी-तैसी होने से कोई नहीं बचा सकता है।
अब जरा इस पर भी विचार कर लिया जाये, कि आखिर........
-पुलिस महकमा ही मीडिया के निशाने पर क्यों रहता है? 
-क्यों बनती है कोई खबर तिल का ताड़? 
-क्यों नहीं अक्सर प्रमुखता से छपता/ दिखता है पुलिस का गुडवर्क? 
इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है पुलिस महकमे के पास 'पब्लिक-रिलेशन' का पूर्ण ज्ञान न होना।

1-खबर कैसे दी जानी है? 
2-क्या खबर दी जानी है? 
3-कितनी खबर दी जानी है ?
4-किस वक्त खबर दी जानी है?
5-कौन सी खबर पहले, कौन 
सी खबर बाद में दी जानी है?

इसके लिए जरुरत है पुलिस महकमे को बाकायदा किसी अनुभवी मीडिया शख्शियत से अपने पीआर अनुभाग को ट्रेनिंग दिलाने की। ताकि वो खबर की महत्तता उसी नजर से समझ सकें, जिस नज़र से मीडिया को खबर की जरुरत या उपयोगिता होती है। हां इसी के साथ पुलिस पीआर अनुभाग और पुलिस विभाग को नीचे अंकित कुछ बिंदुओं को भी गंभीरता से अमल में लाना होगा।
अशोक शर्मा, उप-सूचना निदेशक, उप्र
1. अपने पीआर अनुभाग को मीडिया के 
स्टाइल में काम करने की ट्रेनिंग देनी होगी
2.खबर कैसे लिखी/ बनाई जाती है, इसका 
तरीका सिखाना
3.कौन सी खबर मीडिया के लिए और क्यों 
महत्वपूर्ण होगी? इसका ज्ञान होना
4.खबर की ज्यादा से ज्यादा डिटेल कैसे 
लेकर मीडिया तक पहुंचाई जाये?
5. तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के बजाये सीधे-
सपाट तरीके से मीडिया के सामने ले जाना
कई साल के लंबे खोजी और अपराध की पत्रकारिता के अनुभव से मेरी  नज़र में कुछ ऐसे बिंदु भी हैं, जो पुलिस की बैठे-बिठाये बिना कुछ खास गलती करे-धरे ही छीछालेदर कराने के लिए काफी हो जाते  हैं...पुलिस अगर इन बिंदुओं से बचे, तो भी उसकी मदद हो सकती है।

मुकुल गोयल, पुलिस महा-निरीक्षक बरेली मण्डल
1-खबर या उसके तथ्यों को न छिपाये
2-मीडिया के पूछने से पहले ही खबर पुलिस 
महकमे द्वारा मीडिया  तक पहुंचा दी जाये
3-खबर के तमाम तथ्य पुलिस महकमे के एक 
ही 'प्वाइंट-पर्सन' के द्वारा उपलब्ध कराये जायें
4-खबर में मीडिया क्या मांगेगा/मांगेगी? इसका 
अंदाजा खुद पुलिस महकमा ही कर ले।
5-महकमे के पीआर सेल में अनुभवी और मीडिया
 के काम में रुचि रखने वाले स्टाफ को ही लगाया 
जाये। मीडिया सेल में लगे पुलिस स्टाफ को यह
न लगे कि यह उनकी पनिश्मेंट-पोस्टिंग है, 
जोकि वक्त काटने के लिए उन्हें ढोनी है।








No comments:

Post a Comment