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Saturday 11 June 2011

“द लास्ट सैल्यूट” मुंतज़र की आपबीती है...महेश भट्ट

बॉलीवुड के  फिल्म निर्माता/ निर्देशक महेश भट्ट  से  संजीव चौहान की बातचीत....

                                       “द लास्ट सैल्यूट” मुंतज़र की आपबीती है...महेश भट्ट
                                                      


संजीव- मुंतज़र का ध्यान अचानक इतने साल बाद कैसे आ गया आपको ?
भट्ट- नीयत पाक-साफ हो । तो आप जो ठानते हैं आपको मिल जाता है। हमने जब मुंतज़र ज़ैदी के बारे में सुना तो गांधी जी की याद आ गयी ।
संजीव- मुंतज़र के ध्यान आने से गांधी की याद आने का क्या ताल्लुक ?
भट्ट- गांधी ने कैसे अंग्रेजों के खिलाफ सिर उठाकर एक रेवल्यूशन, एक एतिहासिक जंग लड़ी ? उसके बाद ये हमने आज़ादी पाई थी। तो कहीं पर हमें लगा कि ये तहजीब हमारे मुल्क की ही तहजीब है। तो हमने सोचा कि उन्हें (मुंतज़र अल ज़ौदी) यहां हिन्दुस्तान बुलाकर हमें अपनी ही तहजीब में जान डालनी चाहिए ।
संजीव- जॉर्ज बुश पर जूता फेंकने के बाद मुंतज़र को किसी भी देश ने वीजा नहीं दिया था। पहली मर्तबा किसने आपके कान में डाला कि मुंतज़र को हिन्दुस्तान बुलाया जाये और आप लेकर आये ।
भट्ट- हमारे मित्र हैं इमरान जाहिद साहब (महेश भट्ट की फिल्म चंदू के मुख्य किरदार और मुंतज़र अल ज़ैदी की किताब द लास्ट सैल्यूट पर आधारित नाटक में मुंतज़र ज़ैदी का किरदार निभाने वाले) ने  मुंतज़र ज़ैदी का जिक्र किया था मुझसे
संजीव- यानि महेश भट्ट नहीं, इमरान जाहिद लाना चाह रहे थे मुंतज़र को भारत !
भट्ट- नहीं ऐसा नहीं था । इमरान ने जब मुंतज़र का जिक्र मेरे सामने किया, उसी समय मेरे जेहन में अपने गांधी बाबा (महात्मा गांधी) आये। सोचा कि मुंतज़र अल ज़ैदी को भारत लाकर गांधी जी के ज़ज्बे को जिन्दा रखा जाये । हमने इस ज़ज्बे में नई उर्जा उड़ेली है।
संजीव- मुंतज़र और गांधी जी में कहीं कोई समानता दिखती है ?
भट्ट- सोच की सिमिलरिटी (समानता) है, लेकिन क्रांति का अंदाज़ दोनो का अलग-अलग है।
संजीव- खुलकर समझायें जरा । आपके कहने का मतलब क्या है ?
भट्ट- शायद गांधी की सोच में शत्रु का कोई कान्सेप्ट नहीं है।
संजीव- यानि मुंतज़र शत्रुता की सोच वाले हैं !
भट्ट- हां । मुंतज़र की सोच में अब भी शुत्र है । जिसके खिलाफ उन्होंने (मुंतज़र) आवाज उठाई थी । मगर वो (मुंतज़र) एक नौजवान शख्स है । धीरे-धीरे अपना दामन बचाकर एक नई दिशा में चलना शुरु कर देगा।
संजीव- द लास्ट सैल्यूट लिखवाने के  पीछे क्या वजह रही है ? कहते हैं महेश भट्ट ने ही लिखवाया है !
भट्ट- नहीं ये आपबीती है उनकी (मुंतज़र)। जो मुंतज़र के दिल से फूटी और हमने इस राइटिंग को नाटक में तब्दील किया ।
संजीव- जिस काम के लिए आप देश-दुनिया में मशहूर हैं....कहीं मुंतज़र ज़ैदी आपकी फिल्म में.....(बीच में ही रोकते हुए)
भट्ट- नहीं । नहीं ।  मुंतज़र एक क्रांतिकारी है। एस सोशल वर्कर है। और मुझे लगता नहीं कि उसका कोई इरादा है । मुझसे जुड़ने का (मेरी फिल्म में हीरो बनने का....)
संजीव- आपकी नज़र में खरे उतरते हैं मुंतज़िर (भट्ट साहब की फिल्म में संभावित हीरो की नज़र से)
भट्ट- नहीं मैने कभी इस नज़र से सोचा ही नहीं। हम किस्म के शख्स को जब देखते हैं, वो दूसरी तरह से देखते हैं।
संजीव- आपकी वो कौन सी नज़र है ? जरा खुलकर बतायें...
भट्ट- मंच पर अभिनय करने की जो समझ होती है । वो अलग होती है। दरअसल ज़िंदगी में एक क्रांतिकारी का रोल निभाने के लिए एक अलग ज़ज्बा चाहिए।
संजीव- मुंतज़र ज़ैदी महेश फट्ट की फिल्म के हीरो नहीं हो सकते , लेकिन क्या आप मुंतज़र की ज़िंदगी पर फिल्म बनाने की तैयारी कर रहे हैं  ?
भट्ट- मेरे ख्याल में नाटक (द लास्ट सैल्यूट ) अपने आप में एक सम्पूर्ण माध्यम है। मुझे लगता है इसी के जरिये जो हम सोच रहे हैं, वो  हमारी कोशिश के जरिये (नाटक) ही पूरा हो जायेगा ।
संजीव- नया क्या धमाका कर रहे हैं आप इन्डिया में ?
भट्ट- फिलहाल इसी (मुंतज़र और उन पर लिखे नाटक द लास्ट सैल्यूट के मंचन ) को जी रहा हूं । इसी को सपोर्ट कर रहा हूं ।
संजीव- महेश भट्ट साहब को खुलवाना मुश्किल है...कुछ तो खुलकर बोलिये...
भट्ट- नहीं । मैंने अपनी ज़िंदगी को खुली किताब की तरह खोलकर दिखाया है दुनिया को । आज भी वही कर रहा हूं।
संजीव- क्या मुंतज़र अल ज़ैदी को उसकी सर-ज़मीं (इराक) का गांधी मानते हैं ?
भट्ट- आज की तारीख में नहीं ।
संजीव- क्यों ?
भट्ट- क्योंकि गांधी की सोच से अब भी ये (मुंतज़र) कोसों दूर है ।
संजीव- भारत से वापिस जाने के बाद मुंतज़र को अपने देश में क्या कुछ फायदा मिलेगा ?
भट्ट- शायद एक नई सोच लेकर जाए । और आने वाले कल में एक पीसफुल-रिवोल्यूशन क्या होता है ? इसकी शुरुआत वहां (इराक) जाकर करे ।
संजीव- मुंतज़र अल ज़ैदी की पहचान है बुश पर जूता फेंकने वाले के रुप में । इसी के बाद दुनिया में जूता- कल्चर शुरु हुआ । आप इसको किस तरह से देखते हैं ?
भट्ट- मैंने कहा न, कि उसकी (मुंतज़र ) उम्र का लिहाज करना चाहिए  । एक नौजवान इंसान है ।
संजीव- क्या आप मुंतज़र के जूता फेंकने की बात को सही मानते हैं ? उसकी वकालत कर रहे हैं !
 भट्ट- नहीं संजीव भाई । सुनिये तो पूरी बात । बोलने भी तो दीजिए मुझे...आप जबाब पूरा होने से पहले ही पकड़ लेते हैं मुझे ।
संजीव- जी, जी । बोलिये, बताईये !
भट्ट- मैं मुंतज़र के जूता फेंकने की वकालत नहीं कर रहा । न ही उसे सही मानता हूं। मैं ये कहना चाहता हूं, अगर आप मुझे बोलने का मौका दें तो, कि मुंतज़र ने जो भी किया बेबसी और लाचारी में किया । उसने अपने आक्रोश का इज़हार किया था ।
संजीव- यानि फिर वही मुंतज़र का बचाव.....?
भट्ट- संजीव भाई नहीं । मैं न वकील हूं, न अदालत । मैं सिर्फ महेश भट्ट हूं । उसने (मुंतज़र) अपने देश (इराक) पर बम बरसते देखे हैं। अपनों को बम धमाकों में मरते, बिलखते- तड़पते देखा है । उसका वही अहसास, इजहार था , किसी के ऊपर (जॉर्ज बुश का नाम लिये बिना ) जूता फेंकना । जो शायद मुंतज़र के अंदर से जागा था ।
संजीव- क्या इज़हार के इस गलत तरीके पर मुंतज़र काबू नहीं रख सकते थे  ?
भट्ट- माफ करें चौहान साहब । मैं आपके सवाल से बिल्कुल सहमत नहीं हूं । जो हालात इराक में पैदा हुए या किये गये थे, उनमें किसी नौजवान (मुंतज़र का नाम लिये बिना ) से ये उम्मीद करना कि वो अपने आप पर लगाम लगा सकता था, तो शायद ये हमारी नादानी होगी ।   
संजीव- मुंतज़र से आपकी लम्बी बातचीत हुई होगी । आप फैमलियर हैं उससे । क्या मुंतज़र ने अपनी जेल-यात्रा के बारे में आपसे खुलकर बातचीत की ?
भट्ट- नहीं । मुझे लगता है आदमी वही  और उतना ही बताता है, जो और जितना वो बताना चाहता है। और जब रिश्ते मजबूत होते हैं, तो आप अपने आप उसका इज़हार करना शुरु कर देते हैं ।
संजीव-  मुंतज़र अल ज़ैदी क्या आज के अपने वतन  (इराक) के हीरो हैं आपकी नज़र में ?
भट्ट- शायद कुछ पॉकेट्स में हैं । पूरे अरब वर्ल्ड में अभी उसे (मुंतज़र) हीरो  का दर्जा दिया नहीं गया है ।
संजीव- अगर महेश भट्ट उसे (मुंतज़र को) अपने प्लेटफार्म पर जगह दे दें, तो शायद हीरो बन जाये ?
भट्ट- नहीं । मुझे लगता है कि ये (महेश भट्ट और बॉलीवुड) का प्लेटफार्म ही अलग है ।   
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