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Monday 13 June 2011

बे बम बरसाते हैं, तब भी कुछ नहीं होता


संजीव- गांधी जी का लिखा-पढ़ा कुछ याद है?
ज़ैदी- गांधी जी ने कहा था - मैंने हज़रत हुसैन की ज़िंदगी से सीखा है कि मैं मज़लूम (जिस पर ज़ुल्म और ज्यादती हुई हो) बनूं। ताकि मुझे जीत हासिल हो।
संजीव- आज गांधी जी आपके सामने आकर खड़े हो जायें, तो उनसे क्या कहेंगे?
ज़ैदी- कौन कहता है गांधी मर गये ? गांधी जी आज भी जिंदा हैं ज़िंदगी की तरह ।
संजीव- जूता फेंकने से पहले उसके परिणाम के बारे में सोचा था !
ज़ैदी- हां । मुझे पता था कि बुश पर पहला जूता फेंकते ही मुझे घेरकर मार दिया जायेगा।
संजीव- गांधी जी जूता-लाठी के खिलाफ थे । आपने तो बुश के मुंह पर जूते फेंके....
(सवाल के बीच में ही टोकते हुए.....)
ज़ैदी- महात्मा (गांधी) ने पीसफुल (शांतिपूर्ण) तरीके से रिव्योलूशन की बात की थी। बुश पर जूता फेंकना भी पीसफुलही था। उसमें कहां बम, गोली, तलवार, छुरे का इस्तेमाल किया मैंने?
संजीव- मुंतज़र, बराक ओबामा और जॉर्ज बुश को एक ही जेल में बंद कर दिया जाये, तो आपका रवैया क्या होगा?
ज़ैदी- ऐसा कभी नहीं हो सकता। हम (इराकी) हथियार उठाने भर से ही गुनहगार करार दिये जाते हैं । वे (अमेरिका) बम बरसाते हैं, तब भी कुछ नहीं होता।
संजीव- बुश पर जूता फेंकने से भी ज्यादा ज़िंदगी का कोई खास लम्हा?
ज़ैदी- महात्मा गांधी की समाधि का दीदार।
संजीव- क्या दुनिया में विरोध के लिए जूता परंपरा लाने और जेल जाने पर अफसोस है।
ज़ैदी- कोई और जूता न फेंके। आप किसी वाकये  को दोनो आंखों से देखें। जेल जाने का अफसोस बिलकुल नहीं है।
संजीव- दुनिया कह रही है मुंतज़र ने जूता कल्चर को जन्म दिया है । ऐसा नहीं करना चाहिए था।
ज़ैदी- अगर मैं, और मेरा जूता फेंकना गलत था, तो फिर इराक में बेकसूरों पर बम बरसाने वालों को क्या कहेंगे ?
                                                    जारी.....



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