अपना सांप, अपनी आस्तीन और सच का सामना
मैं अब तक मुंबई सिर्फ एक बार गया हूं। बिहार को भारत के नक्शे पर और टीवी में देखा है। अखबार, किताब और इतिहास में बिहार को पढ़ा है। इसके अलावा बिहार के बारे में थोड़ा-बहुत कागजी ज्ञान मुझे हो सकता है। मेरे इस कागजी ज्ञान या टूटी-फूटी जानकारी को बिहार पर या बिहार के बारे में मेरी 'विशेष-योग्यता' भी समझने की गलती मत कर बैठिये। कहने का मतलब साफ है, कि मुंबई और बिहार से मेरा कोई खास ताल्लुक या वास्ता नहीं रहा है। या यूं समझिये की न मैं 'बिहारी' हूं न 'महाराष्ट्रीयन'। वैसे भी क्षेत्रवाद, भाषावाद की राजनीति में मेरा ज्ञान शून्य है। अब आइये मुद्दे की बात पर। आखिर मैंने ऊपर सिर्फ बिहार-मुंबई को लेकर ही क्यों लिख दीं इतनी लाइनें ? मैंने इन लाइनों को लिखने में समय खराब किया और आपने पढ़ने में। नहीं ऐसा बिलकुल मत सोचिये। हर लिखे का कोई मायने होता है।
यहां बात मुंबई और बिहार की राजनीति की नहीं हो रही है। न किसी को ऊंचा करने और न किसी को नीचा दिखाने की बात है। बात है तो सिर्फ उसूलों की। उसूल भी मेरे या आपके नहीं, शिवसेना के। जिसके मुखिया हैं बाल ठाकरे। अब ये ठाकरे भी कई हिस्सों में बंट गये हैं। परिवार में हर ठाकरे का अपना नाम-काम और अपनी ठसक है। यानी खानदान के सब जिम्मेदारों की अपनी अपनी अलग अलग जिम्मेदारियां। या यूं कहें कि जितनी जिम्मेदारियां उससे ज्यादा जिम्मेदार। शिवसेना का मुख्यालय है मुंबई में। शाखायें और सैनिक फैले हैं देश भर में। देश में जब कहीं किसी चौराहे पर, भीड़ भरे बाजार में, आलीशान इमारत में किसी की इज्जत की धज्जियां उड़वानी हो, तो सेना के सिपाहियों को इशारा भर कीजिए और तमाशे की शूटिंग शुरू। बिना किसी खास बंदोवस्त या इंतजाम के। सिर्फ हाथ-पैर, लात-घूंसों, लाठी-डंडों, ईंट-पत्थरों से। सिर्फ अपने देश की सीमा-रेखा में। किसी दूसरे देश में नहीं। यहां तक कि अपने ही देश में भी मुंबई की सीमा के अंदर। उसके बाहर कहीं नहीं। अर्थात अपने ही देश के किसी अन्य सूबे की सीमा के भीतर नहीं। कहने का मतलब- घर के शेर-बाहर ढेर।
मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच ने 8 मार्च को एक 'संगीत बार-क्लब' पर छापा मारा। यह बार-क्लब (डांस-बार) मुंबई के मश्हूर इलाके पश्चिमी सांताक्रूज में है। बार, पर छापामारी रात एक बजे की गयी। बार में असामाजिक तत्वों की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि पुलिस टीमों को बार की एक दीवार तोड़कर उसके अंदर घुसना पड़ा। मौके पर मुंबई पुलिस को नौ 'बार-गर्ल्स' (डांसर) और तीन कर्मचारी मिले। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस की कहानी सही माने तो, छापे से पहले ही बार मालिक मौके से फरार हो गया। यानी जैसा पुलिस छापों की कार्यवाही में देश भर में अक्सर होता है। 'तीन गिरफ्तार, एक फरार।' या मुठभेड़ के बाद की कहानियों में अक्सर पुलिस अगले दिन अखबारों में छपवाती है- 'एक बदमाश ढेर, दो अंधेरे का लाभ उठाकर भागने में कामयाब रहे। उनकी तलाश जारी है।'
डांस बार से पकड़ी गयी लड़कियों और कर्मचारियों से आधी रात को थाने में पूछताछ की गई। पता चला कि डांस बार मुंबई के किसी 'भाई, गुंडा या अंडरवर्ल्ड सरगना के किसी गुर्गे का नहीं, बल्कि शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के पोते का है', तो पुलिस के पैरों तले से जमीन खिसक गयी। अब तब तक पुलिस रोजनामचे में डांस बार पर छापे की कहानी दर्ज कर चुकी थी। डांस बार के मालिक के रूप में जब सेना के साहब यानी बाल ठाकरे के पोते का नाम सामने आया, तो मुंबई क्राइम-ब्रांच की छापा मारने वाली टीम को पूरी कार्यवाही ही गले की फांस बनती नज़र आने लगी। शिवसेना के लिए ये मामला ऐसा बन गया, मानो उसने अपना सांप मारकर खुद ही गर्दन में लटका लिया हो। या यूं समझिये कि सपेरे से बेकाबू हुआ सांप, डसने के लिए सपेरे के ही पीछे पड़ गया हो।
मामला शिवसेना के सर्वे-सर्वा बाल ठाकरे के पोते से जुड़ा था। ये खबर अगले दिन अखबार की सुर्खी होनी थी, सो हुई। इसके विरोध में न सेना के सिपाही ही महाराष्ट्र और मुंबई की सड़कों पर उतरे, न किसी चैनल के दफ्तर पर पथराव करके शीशे चकनाचूर किये गये और न किसी का सिर फूटा। न किसी चैनल के खोजी पत्रकार ने इस खबर को ब्रेकिंग-एक्सक्लूसिव बनाकर देश की जनता के सामने दिन-रात परोसा। सेना की नज़र से अगर सोचें तो कुल मिलाकर नाक कटवाने वाला अपना ही तो था, फिर किसकी खबर और कैसी खबर, किससे सिर फुटव्वल और भला क्यों? ये तो एक डांस बार में आधी रात को लड़कियां नचवाने की बात थी। अगर अपना सिपाही सौ खून भी करे, तो भला किसी से माफी मांगने थोड़ा ही जाया जायेगा। अपना सूबा, अपनी सेना, अपने सिपाही और अपना स्टेशन (पुलिस थाना)। मैंने इंटरनेट पर शिवसेना का मुखपृष्ठ 'सामना' कई बार खंगाल डाला। हर बार नज़र के सामने से शिवसेना प्रमुख के पोते के डांस-बार पर आधी रात को पड़े पुलिस छापे की खबर नदारद। आखिर को इसे भी अपनी आंखों का धोखा या यूं कहिये कमजोर नजर का असर, समझकर खुद को ही कोसकर, अपने मन को समझा लिया।
खबर का असर होना था, लेकिन हुआ नहीं। पुलिस को प्रेस-कांफ्रेंस आयोजित कराकर आरोपियों का जुलूस निकलवाना था, लेकिन निकलवाया नहीं। डांस बार में आधी रात को लड़कियां नचवाने की बात सामने आने पर अगले दिन मुंबई में शिवसेना का जलवा दिखना चाहिए था, लेकिन दिखा नहीं, वेलेंटाइन-डे या उससे एक दिन पहले जैसी नंगई होनी थी, लेकिन हुई नहीं। आखिर क्यों? जब बिहार के छात्र राहुल राज को मुंबई में दिन-दहाड़े बस अपहरणकर्ता बताकर करीब से मुंबई पुलिस ने गोली मारकर ढेर कर दिया, यूपी के टैक्सी ड्राइवरों को मराठी भाषा न बोलने पर सड़कों पर पीटा गया, माई नेम इज खान बनाने पर शाहरुख खान का जीना मुहाल कर दिया गया, बॉलीवुड एक्टर सैफ अली खान को 'टपोरी' की संज्ञा से नवाजा गया, वेलेंटाइन-डे के मौके पर पार्कों में बैठकर बातचीत करते लड़के-लड़कियों की सरेआम बेइज्जती की जाती है। बस इतना ही फर्क जानता हूं मैं मुंबई और बिहार में। न मैं बिहार का हूं न मुंबई का। मेरी नज़र में शायद यही हो सच का सामना।
No comments:
Post a Comment