आजकल 'मीडिया' में (अखबार, न्यूज चैनल) रिपोर्टर बनने और रिपोर्टर बनाने वालों की भीड़ है। एक के पीछे दस-दस। क्राइम रिपोर्टर बनने के शौकीनों पर आगे चर्चा कर लेंगे। पहले क्राइम-रिपोर्टर बनाने वालों का गुणगान कर लिया जाये। क्राइम रिपोर्टर बनाने वाले कुछ मठाधीश कई अखबार और न्यूज-चैनलों के दफ्तर में या फिर दफ्तरों के बाहर गुमटियों पर मुंह में तम्बाकू, पान चबाते, यहां-वहां भटकते मिल जायेंगे। कुछ श्रीमान क्राइम रिपोर्टर बनने के इच्छुकों को प्रेस-क्लब में या उसके बाहर बुला लेते हैं। दिल्ली में आईएनएस बिल्डिंग के नीचे या फिर हाईटेक सिटी नोएडा में स्थित फिल्म सिटी में चैनल के दफ्तरों के बाहर चाय-पान के ठीये (अड्डे) भी क्राइम-रिपोर्टर बनाने के अड्डे के रुप में बदनाम हैं। अगर कहीं नहीं तो फिर अपने कार्यालय के ही बाहर ही सही।
जिसको जहां, जैसी सुविधा। संभव है कि जिस जिले में महाशय रह रहे हैं या जिस जिले के रहने वाले हों, उन्हें उस जिले में मौजूदा समय में थानों की संख्या भी सही-सही न मालूम हो। फिर भी वे अपने पीछे-पीछे क्राइम रिपोर्टर बनने के इच्छुकों की लंबी लाइन लिये यत्र-तत्र-सर्वत्र घूमते दिखाई दे जायेंगे। भला इसमें बुराई भी क्या है? क्राइम रिपोर्टरी का, क,ख,ग नहीं आता तो क्या हुआ? थाने-चौकी की जानकारी नहीं है तो क्या हुआ? एसएसपी, एएसपी, डीसीपी, एडिश्नल डीसीपी में फर्क नहीं मालूम तो क्या हुआ? क्या इसके बिना क्राइम रिपोर्टरों के 'गुरु' नहीं बन सकते?
आखिर हमने (तथाकथित क्राइम रिपोर्टर-गुरु) कई साल तक डेस्क पर क्राइम-रिपोर्टरों की कॉपी चेक (संपादित) की है। उनकी खबरों पर शीर्षक (हैडिंग) लगाये हैं। अखबार के पन्नों पर आधी रात को प्रेस में क्राइम की सैकड़ों खबरें पेस्ट (चिपकवाईं) कराई हैं। फलां-फलां न्यूज-चैनल में थे, तो कई रिपोर्टरों द्वारा एसाइनमेंट डेस्क पर मुहैया कराई गयी फीड (वीजुअल) और डिटेल्स लेकर एंकर वीओ-शॉट्स वीटी एडिटर से चिपकवाकर ऑन-एअर (प्रसारित) करवाये हैं। भला और क्या योग्यता चाहिए क्राइम रिपोर्टरों का गुरु बनने के लिए?
बुजुर्गों ने कहा है- बात गाय की भी कहो, और कसाई की भी।
भूसे में लाठी भांजने से कुछ नहीं होता। मैं भी कैसा इंसान हूं। सब कमियां क्राइम-रिपोर्टरी के गुरुओं में ही गिनाने-बताने बैठ गया। सब कमी कोई गुरु-जी में ही थोड़ा न है। क्राइम रिपोर्टिंग की 'नर्सरी' में कैंसर के जीवाणुओं का छिड़काव करने का ठीकरा अकेले 'सर-जी' के ही सिर क्यों फूटे? ये तो सरासर अन्याय हो जायेगा। सर-जी ने जब खुद क्राइम-रिपोर्टरी की ही नहीं, तो भला वे उसके प्रति अपना उत्तरदायित्व भी कैसे समझ सकेंगे? कैसे समझेंगे कि कितनी जिम्मेदारीपूर्ण होनी चाहिए क्राइम-रिपोर्टरी? कितना जोखिम है क्राइम-रिपोर्टरी में? कितनी मेहनत है क्राइम-रिपोर्टरी में? कितने दम-दिमाग का काम है क्राइम-रिपोर्टरी? कितने सब्र की जरुरत होती है क्राइम-रिपोर्टिंग में? कितने विशाल नेटवर्क की जरूरत होती है क्राइम-रिपोर्टिंग के लिए? कैसे दिन और रात के बीच फर्क करना याद नहीं रहता क्राइम-रिपोर्टर को? कैसे आंधी, तूफान, तपिश या हाड़-तोड़ जाड़े से जूझना पड़ता है क्राइम-रिपोर्टरी में? कैसे खोजने पड़ते हैं अपराध की खबरों में से मानवीय संवेदनाओं वाले तथ्य? कितना बुरा महसूस करवाता है जाड़े की ठिठुरती ठंड में आधी रात को नींद से बोझिल आंखें लिए क़त्ल की कवरेज (रिपोर्टिंग) पर गरम रजाई छोड़कर जाने का मोह। दफ्तरों के एसी की ठंडी हवा से निकलकर मई-जून की तपती गर्मी में अपराध की खबर के संकलन पर निकलना। आदि-आदि।
इस सबके बाद भी क्राइम रिपोर्टर बनने के इच्छुक बच्चा-लोग और क्राइम-रिपोर्टर के गुरुओं की लंबी चौड़ी जमात मौजूद है। वो जमात जिस पर किसी का वश नहीं चलता। उन न-समझों की भीड़, जिन्होंने अभी पत्रकारिता की दुनिया में ठीक तरह से आंख भी नहीं खोली है, लेकिन 'डायरेक्ट क्राइम-रिपोर्टर' बनने के लिए हाथ धोकर पीछे पड़े हैं। क्राइम-रिपोर्टरी के कारोबार में एकदम 'बिचारे' गुरु-जी के। अब बताओ ऐसे में भला गुरु-जी का क्या दोष?
वे तो किसी को घर से बुलाने जा नहीं रहे हैं। आओ। सबको एक ही दिन में क्राइम-रिपोर्टर बना डालूंगा। लोग (नई पीढ़ी) खुद ही आ रहे हैं। और 'आ बैल मुझे मार' वाली कहावत खुद ही, खुद पर चरितार्थ करवाने पर उतारु हैं। अब बताओ भला, भलमानस गुरु-जी भी क्या करें? अगर सर-जी किसी को क्राइम रिपोर्टर न बना पायें, या न बनवा पायें, तो भला इसमें बताओ सर-जी का क्या दोष? ये गलती तो सरासर 'शिष्य' की है। वो 'सर' के क्राइम-रिपोर्टरी के जमीनी, नैतिक, सामाजिक और शैक्षिक-ज्ञान को ही नहीं नाप-तोल पा रहा है। किसी मीडिया इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया नहीं, कि क्राइम-रिपोर्टर बनने का जुनून सवार। जुनून भी इस हद तक कि दिमाग को करीब-करीब 'सुन्न' कर दे। उसी तरह जैसे कॉमनवेल्थ-गेम्स खतम होने के बाद खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी का दिमाग बर्फ में लगा हुआ समझा, माना और कहा जा रहा है। सही-गलत के बीच फर्क करने, सोचने और समझने की ताकत लगभग खत्म हो जाती है।
मुझे न तो क्राइम-रिपोर्टरी से कोई जलन है। न क्राइम-रिपोर्टर से। जलन होगी भी भला क्यों? मैं खुद भी तो अदना सा क्राइम-रिपोर्टर था, हूं और रहूंगा। ये अलग बात है, कि जिंदगी भर क्राइम की कोई बड़ी 'ब्रेकिंग' या 'एक्सक्लूसिव' खबर नहीं कर सका। क्राइम रिपोर्टिंग के कुछ उन तथा-कथित मठाधीशों की नज़र में, जो मुझसे ही एक-एक शब्द मांगकर क्राइम-रिपोर्टिंग की दुनिया में 'साहिब-ए-किताब' हुए बैठे हैं। जिन्हें मैंने ही तमाम सनसनीखेज खोजी खबरें लाकर दीं। वे मेरी इन्हीं खबरों पर अपने चेहरे पोतकर (मेकअप) आधे घंटे की एंकरिंग करके टीवी जर्नलिज्म के शो-मैन यानी राजकपूर बन गये। पत्रकारिता की तमाम जिंदगी उन्होंने खुद को झूठी दिलासा देकर बिता दी। इस गुमान के साथ कि देश में उनसे धुरंधर खोजी और क्राइम-रिपोर्टरी का पितामाह न कोई था, न है और न आइंदा होगा। इन्हीं में कुछ ऐसे वरिष्ठ क्राइम-रिपोर्टर भी हैं, जो अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम की क्रिकेट मैच देखते हुए की एक 'जुगाड़ू' फाइल फुटेज के दम-खम पर कई साल से एसआईटी (स्पेशल इनवेस्टीगेशन टीम) प्रमुख पद पर अपनी कुर्सी की 'खैर' मनाने की अगरबत्ती जला रहे हैं। या फिर इंटरनेट से फुटेज का 'जुगाड़' करके क्राइम-रिपोर्टिंग की दुनिया में अपना नाम रोशन करने की लड़ाई दिन-रात लड़ रहे हैं।
कम हम भी नहीं हैं। क्राइम-रिपोर्टिंग दुनिया के ऐसे 'धुरंधरों'
की काट के लिए हमने, इन्हीं से इनका 'मूल-मंत्र' चुरा लिया। करो कम, गाओ-बजाओ ज्यादा। मैंने ये खबर फोड़ी, मैंने वो खबर फोड़ी (भारत में टीवी रिपोर्टिंग की दुनिया से 'फोड़ी' शब्द की उत्पत्ति हुई है, फोड़ी यानी ब्रेक की), जैसे जुमले सुना-सुनाकर अपने उस्तादों और दफ्तर में सीनियर-जूनियरों के कानों में कम-सुनने की बीमारी पैदा कर दी।
उफ्। बात थी क्राइम रिपोर्टिंग की क्लास में फैलते कैंसर की। और मैं कैंसर का इलाज करने में फंस गया? अरे भाई जब बीमारी पैदा हुई है, तो असर भी दिखायेगी ही। जब गली-गली में पत्रकारिता की पढ़ाई की दुकानें खुल गयी हैं, खुल रही हैं। तो वे सब ताला-बंदी के इरादे से तो खोली नहीं गयीं न। सब खाने कमाने के इरादे से ही तो खुली हैं। कुछ-एक को छोड़कर। मां-बाप की गाढ़ी-कमाई और संतान को पत्रकार बनाने के उनके अरमान, कोई कॉमनवेल्थ गेम्स का सरकारी बजट तो है नहीं, जो सुरेश कलमाड़ी की तरह यूं ही फिजूल में दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर पानी की मानिंद बहाकर छोड़ दिया जाये। ऐसे ही तो पैसा नहीं फूंक रहे हैं न माता-पिता। पुत्र-पुत्री को पत्रकार बनाने की तमन्ना संजोये।
पत्रकार बनने के दु:ख ही तो नहीं पता बिचारे मां-बाप को। क्राइम रिपोर्टिंग या फिर रिपोर्टिंग का सुख तो वे भी घर में टीवी के सामने बैठकर देख और महसूस कर लेते हैं। कैसे दिन भर रिपोर्टर देश-विदेश में कैमरे पर खड़े होकर ज्ञान वांचते हैं। यहां बम फटा, वहां सूनामी आया, कहीं हवाई-जहाज गिरा, तो कहीं धरती धंसी या फटी। जिधर, जहां देखो। हर जगह रिपोर्टर या क्राइम-रिपोर्टर मौजूद। कितना सुखद अनुभव होता होगा, टीवी पर किसी क्राइम-रिपोर्टर को बोलते सुनते-देखकर? उन मां-बाप को, जो अपनी संतान को पत्रकारिता का छात्र बनाये बैठे हैं। या पत्रकार बनाने की तमन्ना संजोये बैठे हैं। वे नादान हैं। नहीं जानते आज रिपोर्टरी या क्राइम-रिपोर्टरी का सच। वे नहीं पढ़ सकते हैं क्राइम रिपोर्टरी के मठाधीशों का मन। जो मैदान में किसी नये खिलाड़ी के आने से हो उठते हैं, बेचैन। जो नहीं जानते खुद क्राइम रिपोर्टिंग के मायने, उसका दर्द और उसके पीछे छिपी मेहनत और जोखिम का रुह कंपा देने वाला सच। क्योंकि आज उनसे बढ़कर कोई दूसरा क्राइम-रिपोर्टर नही है न।
बीमारी से घबराने की जरूरत नहीं है। जरुरत है बीमारी के सही इलाज की। क्राइम रिपोर्टर बनने और बनाने से पहले जरुरत है, रिपोर्टरी का क, ख, ग सीखने की। किसी ऐसे अखबार या न्यूज चैनल में काम करके, जहां अभी कुछ पत्रकारिता बची हो। फिर भी जिस तरह रिपोर्टर और क्राइम-रिपोर्टर बनने और बनाने वाले शौकीनों की आज देश में बाढ़ आयी है, या जिस रफ्तार से इनकी संख्या बढ़ रही है। उसे देखकर तो बॉलीवुड के शो-मैन स्व. राजकपूर के शब्द एक बार जेहन में जरुर कौंध जाते हैं- 'वो शौक भी क्या जो इंसान को पागल न बना दे।'
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