आज की दूरदृष्टि |
कल का फौजी अन्ना |
बीते कल के डॉ. किसन बाबूराव अन्ना हजारे। आज अन्ना हजारे का नाम दो शब्दों में सिमट गया। नाम भले छोटा हो गया, लेकिन दुनिया में कद इतना लंबा हो गया, या बढ़ गया...कि हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी अन्ना के इस लंबे कद को नापना आसान नहीं होगा। अन्ना की ऊंचाई इतनी ज्यादा बढ़ गयी, कि अन्ना के सिर तक पहुंचना अच्छे-अच्छों के वश की बात नहीं रही है। शायद इसीलिए देश की सर्वोच्च शक्ति यानि संसद में भी अन्ना की शर्तों पर विचार के लिए अपनी सहमति की मुहर लगा दी। उस देश में, जिसमें एक-एक वोट की खातिर नेता घर-घर, गली-गली जाकर अपने से छोटे-बड़े सबके पैर छूता फिरता है। सत्ता और गद्दी के लालच में।
सिसकती संसद |
यही अन्ना 15 साल तक भारतीय फौज में सिपाही रहे। बाद में देश के सरकारी तंत्र में घुसे भ्रष्टाचार ने अन्ना की सोच सल्तनत के प्रति एकदम बदल ली। बस यही सोच थी, जिसने सेना के पूर्व सिपाही को, आज सरकार पर सवारी गांठने के लिए मजबूर कर दिया। ताकि भ्रष्टाचार में आकंठ डूब चुकी जनता और सरकारी तंत्र को “ज़िंदगी” दी जा सके। अब भला सोचो जब भ्रष्ट सरकारी हुक्मरान हों, वहां भला अन्ना जैसों का क्या काम? ये सोच भ्रष्ट व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की हो सकती है, पूरे समाज की नहीं। बस यहीं भ्रष्टाचारियों पर, अन्ना सा बूढ़ा एक अदना सा शख्स भारी पड़ गया। भारी ही नहीं पड़ गया, लेने के देने डाल दिये। संसद और सल्तनत के।
जिस जमाने में कोई इंसान एक दिन का व्रत रखने पर पूरे दिन फल-मेवा खाता है, दूध पीकर जैसे-तैसे व्रत पूरा कर पाता है। उस देश में अन्ना सा बुजुर्ग शख्स बिना कुछ खाये हुए ही अनिश्तिकालीन धरने पर जा डटा।
दिल्ली के रामलीला मैदान में। आंधी-बारिश, भूख-प्यास की चिंता किये बिना। एक-दो दिन के लिए नहीं, पूरे 12 दिन तक के लिए। बस यहीं पर कल का सेना का सिपाही आज निहत्था होकर भी, देश की ताकतवर सल्तनत पर भारी पड़ गया। पूरा देश एक हो गया, सल्तनत की भारी-भरकम ताकत को भूलकर, छोड़कर। एक अदद अन्ना के साथ। उस अन्ना हजारे के साथ, जिसके पास न सिर छुपाने को छत है। न ओढ़ने को कीमत रजाई-गद्दा। न पहनने को शानदार कीमती कपड़े। न मन में, दिल में लजीज भोजन करने की इच्छा। उस अन्ना के साथ हो गया पूरा देश।
हमें दो जून की रोटी मयस्सर नहीं |
उस अन्ना की एक आवाज पर भर गया, दिल्ली का वो पूरा रामलीला मैदान, जिसे देश के पूर्व उप-प्रधानमंत्री- गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी भी तमाम कोशिशों के बाद जनता से पूरा नहीं भरवा सके। जिनके पास ताकत थी, शोहरत थी और था भरपूर पैसा। ऐसे में बिचारे एक अदद खाली हाथ अन्ना के लिए रामलीला मैदान में भीड़ का ये आलम हो गया, कि उसे नियंत्रित करना मुश्किल हो गया। क्या इसे ही कहते हैं लोकतंत्र की ताकत। जनता की ताकत। देश के मौजूदा हालातों को देखकर अगर ये कहा जाये, कि संसद से लेकर सल्तनत तक के ऊपर कल का एक अदना सा सिपाही भारी पड़ गया, बिना कोई ताकत इस्तेमाल किये, सिर्फ और सिर्फ जनता-जनार्दन के दम-खम पर, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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