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Wednesday 5 October 2011

माउंट आबू से लौटकर.....

                               
                               अनार के “लाल” दानों का “काला” सच
माउंट आबू। भारत में राजस्थान राज्य का मशहूर रमणीय पर्यटन स्थल। देश और दुनिया में मशहूर। जिसने पहले कभी नहीं देखा। हर वो शख्स माउंट आबू देखने के लिए लालायित मिलेगा। ऐसे ही लालायित लोगों की भीड़ में कल तक मैं भी शामिल था। अब नहीं हूं। क्योंकि मैंने माउंट आबू देख लिया है। अपनी आंख से। करीब से। जो कुछ सुना-सोचा था। देख लिया है एकदम उसके उलटा। माउंट आबू में जाकर। या यूं कहूं, माउंट आबू पर जाकर। 
किताबों में पढ़ा था। माउंट आबू। भारत और राजस्थान के नक्शे पर देखा था, माउंट आबू। जो लोग चर्चा करते थे, माउंट आबू का, वे सब लगते थे मुझे “अजूबा” औरों से हटकर कुछ “खास”। मैं भी माउंट आबू देखकर खुद को बनाना चाहता था-“खास”। और इसी खास बनने के चक्कर में जा पहुंचा- माउंट आबू। 15 सितंबर 2011 की रात नई दिल्ली से स्वर्ण जयंती राजधानी ट्रेन पकड़ी। अगले दिन यानि 16 सितंबर 2011 को सुबह ठीक छह बजकर पांच मिनट पर ट्रेन ने आबू स्टेशन पर उतार दिया। नित्य क्रिया से निवृत्त होने के बाद कार से माउंट आबू (पहाड़) के लिए चल दिया। सुबह करीब नौ बजे। अबू शहर से निकलते ही शुरु हो गयी चारो ओर हरियाली, पहाड़, घुमावदार पहाड़ी रास्ते। रास्तों पर जगह-जगह बैठे लंगूरों (बंदर) के झुंड। सड़क के दोनो ओर लगे साइनबोर्ड। साइनबोर्ड्स पर लिखा था...आप सेंचुरी इलाके में हैं। शिकारियों के बारे में सूचना दें, और इनाम पायें। कुछ किलोमीटर चलने के बाद ड्राइवर ने एक जगह बैरियर पर कार रोक दी। ये बैरियर सरकारी था। और इसी बैरियर पर हमें कटानी थी, सरकारी टेक्स की पर्ची। बीस रुपये की पर्ची कटाई और कार आगे बढ़ गयी। करीब 20-22 किलोमीटर के रास्ते में (आबू शहर से नक्की झील तक) पहाड़ी रास्तों के  किनारे चार-चार, पांच-पांच छोटे-छोटे मकान भी दिखाई दिये। बमुश्किल दो-तीन स्थान पर छोटे-छोटे पानी के झरने थे। रास्ते में दिखाई दिये एक-दो बड़े पहाड़ी नाले। और जो कभी नहीं भूल सकता माउंट आबू यात्रा में, वो हैं, उसकी टूटी-फूटी पड़ीं सड़कें। रास्ते के किनारे बसे मकानों के इर्द-गिर्द तो सड़क की हालत और भी जर्जर थी। सड़क देखी तो, मन में खुद-ब-खुद सवाल उठने लगे...क्या यही है माउंट आबू? क्या कोई संभालने वाला नहीं है इस प्राकृतिक धरोहर को?
कार चालक से पूछा और क्या है इस सबके सिवा माउंट आबू में देखने को। जबाब मिला...सर बस जो देख रहे हो देख लो। इसके अलावा कुछ और नहीं है यहां। राज्य सरकार ने पाबंदी लगा रखी है। यहां खरीद-फरोख्त, निजी विकास पर। और सरकार खुद विकास के लिए इधर मुंह घुमाकर नहीं देखती। मतलब साहब- न जीयेंगे और न जीने देंगे। प्राइवेट पार्टियों को यहां आने की इजाजत नहीं है। और सरकार विकास करती नहीं है। इसलिए आप जो कुछ देख रहे हैं, बस यही है- “माउंट आबू”।
रास्ते में एक मंदिर मिला। पूछने पर पता चला, कि मंदिर करीब छह सौ साल पुराना है। ऐतिहासिक धरोहर है। दुनिया भर में मशहूर है। बताईये विश्व-प्रसिद्ध मंदिर के बारे में बताने के लिए एक अदद “जानकार” (गाइड)तक नसीब नही था। आपको अपनी आंख से जो देखना है, समझना है। अपने आप देख-समझ लीजिए। इस विश्व-प्रसिद्ध मंदिर के बारे में। मंदिर दर्शन के बाद टेक्सी-चालक से पूछा- और क्या है माउंट आबू में देखने के लिए? रोमांचकारी, रमणीय। जिसे देखकर माउंट आबू हमेशा के लिए यादों में बस जाये। जबाब मिला- नक्की झील साहब। नक्की झील पहुंच गये हम। करीब सौ दुकानें। सामने करीब एक हजार कदम पैदल चलने पर एक बड़ी झील। जिसका औसत क्षेत्रफल रहा होगा साढ़े तीन या चार किलोमीटर। नक्की झील के आसपास मौजूद दुकानों पर सामान का भाव लिया। सामान के आसमान छूते “भाव” से ही अंदाजा हुआ, कि हम माउंट आबू पर या फिर माउंट आबू इलाके में आ चुके हैं। जरुरत से ज्यादा मंहगाई के कारण सामान तो नहीं खरीदा। हां, मन रखने के लिए झील में वोटिंग करने जरुर पहुंच गये। वोट (नाव) की पर्ची कटाई। आधे घंटे की पर्ची के 90 रुपये। यानि माउंट आबू में धरोहर और रख-रखाव के नाम पर धेला नहीं, और मंहगाई (लूट-खसोट) का आलम रुला देने के लायक।
नौकायन (वोटिंग) करके निकले तो झील के गेट पर ही दो अधेड़ महिलाओं को अनार-दाना बेचते देखा। चमकीली कागज की कटोरियों में लाल-सुर्ख भरे “अनार-दाने” देखकर जीभ में पानी आ गया। जान चुका था, कि पर्यटन स्थल के नाम पर नक्की झील पर भी ठगी ही हो रही है। इसके बाद भी लाल-सुर्ख अनार दाने चूसने का लालच, ठगी पर भारी पड़ा। अनार दाना बेच रही अधेड़ महिला से भाव(रेट) पूछा तो बोली- “एक कटोरी 20 रुपये की।” अनार दाने से भरी कटोरी का रेट सुना तो बुरा नहीं लगा। दिल्ली में तो इतना अनार दाना 40-50 रुपये से कम का नहीं मिलेगा। सोचा चलो- सब कुछ घटिया था। दुनिया में मशहूर माउंट आबू में। कम से कम अनार दाने का रेट तो सही है।
अनार दाने का सही (वाजिव) रेट समझकर एक ही बार में तीन कटोरियां खरीद लीं। दो अपने हाथों में संभालीं और एक टैक्सी ड्राइवर के हाथों में सौंप दी। पैसे भी दे दिये । साठ रुपये। लेकिन अरे ये क्या? अनार दाना बेचने वाली महिला ने जैसे ही कटोरियों में सजे रखे अनार दाने कागज में पलटे, तो कटोरी के नीचे कागज भरा हुआ निकला । यानि हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। जो कटोरी पूरी अनार दाने से भरी हुई दिखाई दे रही थी, उसमें अनार दाना तो आधे से भी कम था। माउंट आबू का सच अपनी आंख से देख लिया था। समझ आ गयी थी, माउंट आबू की “सच्चाई और ऊंचाई”। और देख लिया था दुनिया भर में मशहूर (अब कथित रुप से) माउंट आबू में लाल सुर्ख अनार दानों का “काला-सच” भी।

2 comments:

  1. ठगाई तो हर पर्यटन स्थल पर है। आबु इससे अछूता क्यों रहे। :)

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  2. शक्रिया पंडित जी। अगर संभव हो तो मेरे साथ फेसबुक पर और youtube.com पर crimefathertv से भी जुड़ने का कष्ट करें। अच्छा लगेगा। बाकी साथियों को भी बोलिये crimewarrior blog और crimefathertv on youtube.com के साथ जुड़ने के लिए। शायद आप सबको कुछ पसंद आ जाये...संजीव

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