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Friday, 15 March 2013

शहर में शायद फिर कहीं दंगों का एलान हो गया है ......


आजकल मुझे समुंदर से खेलने का शौक चढ़ रहा है
मतलब साफ है कि ताल मौत की ओर बढ़ रहा है


मेरे शहर के मकान की दीवारों में दरारें पड़ने लगी हैं
लगता है गांव में मां की उल्टी आंख फड़कने लगी है 
माचिस की बात छोड़िये मेहरबां अब तो कुछ दिनों से 
घी में डूबे मेरे बदन से आग दोस्ती करने पर अड़ी  है 




यानि बर्फ और हवा भी संग रहने की जिद पर डटी हैं
शहर भर के सपेरों ने अजीब शौक पाल लिया है
सपोलों की टोकरी में नेवलों को ही डाल दिया है
आजकल मुझसे हर जहरीला सांप भयभीत रहने लगा है 
शायद सांप से ज्यादा ज़हर मेरी नसों में बहने लगा है












मैं सपेरा तो नहीं हूं कि सांप को बीन की धुन से काबू कर लूं
हां इंसान हूं मैं वह, जो तमाम सपेरों को ही नेस्तनाबूद कर दूं
यूं तो मैंने हर सांप के काटे का अब इलाज तलाश लिया है
उससे पहले लेकिन मैंने कई हकीमों को हलकान किया है




न मालूम क्यों हवाओं पर ख़त लिखने की तमन्नायें कुलाचें मारती हैं
हवाओं का सब्र फिर भी देखिये मुझसे नादां को फिर भी पुचकारतीं हैं
पत्थरों के बदन पर जबसे मैंने लिखने का शौक पाला है
समुंदर की हर सीपी ने मेरी ही देहरी पर दम निकाला है





खुद ही कुआं खोदकर पानी पीने का शौक मुझे क्या चर्राया है
ज़माने से सूखे पड़े कुंओं को भी मेरी जिद से पसीना आया है
मां की गोद में भूख से बिलबिलाता दुधमुंहा अचानक सो गया है
यानि शहर में शायद फिर कहीं दंगों का एलान हो गया है ............संजीव

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