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Sunday 2 November 2014

"ना जाने कितने दीदये-तर छोड़ जाउंगा" अजय एन. झा की अधूरी हसरत

CRIMES WARRIOR EXCLUSIVE

ABOUT ME अपनी नज़र में अजय एन. झा 

पत्रकारिता पहला प्यार नहीं, हसरत प्रोफेसरी की थी-अजय एन. झा

मेरे लिए पत्रकारिता पहला प्यार नहीं था, मेरी इच्छा 

थी कि मैं बहुत बड़ा प्रोफेसर बनूं और वो भी जेएनयू 

में..। मगर वहां से अपनी पढ़ाई ख़त्म 

करते करते ये भ्रम टूट गया। 

मुझे लगा कि पत्रकारिता के ज़रिए मैं देश 

और समाज के उन अछूते पहलुओं तक पहुंच पाऊंगा जहां आम तौर पर 

बंद कमरे में बैठे विद्वान और विचारक नहीं पहुंच पाते मगर उसके 

बारे में लंबा-चौड़ा भाषण ज़रुर देते हैं। मुझे लगा कि उन सभी चीज़ों को 

नज़दीक से देख पाना शायद मेरे लिए बेहतर तालीम होगी और वो सच 

भी हुई।
हिंदुस्तान टाइम्स के सहायक संपादक के तौर पर 1980 के

दशक में मैने पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। अब तक का फासला 

आज तक, बीबीसी, दूरदर्शन और एनडीटीवी के रास्ते इस मुकाम पर 

पहुंचा है और अब तक बदस्तूर जारी है। मैं समझता हूं कि सहाफत की 

एक ऐसा ज़रिया है जिसके मार्फत आप उस आदमी की नब्ज़ माप सकते 

हैं या उसके एहसासों को महसूस कर सकते हैं जो ये कह रहा हो कि 

"ग़म तो हो हद से सिवा और अश्क अफसानी न हो। 

उससे पूछे जिसका घर जलता हो और पानी न हो "

अजय एन झा की यादों में एस. पी. सिंह
मैं ये तो नहीं दावा कर सकता की उनके बहुत करीबी लोगों या दोस्तों में से था क्योंकि मेरा उनका संबंध आजतक से ही जुड़ा और वहीँ पर ही खत्म हो गया. आजतक के दौर में हर वरिष्ठ पत्रकार अपने आस-पास चम्पूओं और चाटुकारों की फौज रखना लाजमी समझता है क्योंकि ये किरदार उसके खेल और जुगाड़ की दुकान ही चलाने में ही काम नहीं आते बल्कि उसका अपना तिलस्म सोंच की परिणिति तथा गोल या खास महकमा को बनाकर यथाविधि महिमा मंडन या विलाप को भी अंजाम देने में काफी कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

स्वर्गीय सुरेन्द्र प्रताप इन चोंचलों,चमचा, कलछा और बेलचा की फौज की सोच और समझदारी से काफी ऊपर थे. उनकी सबसे बड़ी और अनोखी शख्सियत की पहचान और रंगबत थी - बेदाग़ छवि एवं बड़ा कद. मुलाजमत की मजबूरी और ज्याती रिश्तें के बीच उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. इसलिए उनके दर्शक और सहयोगी - दोनों उनके ईमानदारी और बेबाकी के कायल थे. लफ़्ज़ों की लज्जत और ख़बरों में छुपी सच्चाई को परखने की उनमें अदभुत क्षमता थी और उसके लिए वो कभी समझौता नहीं करते थे. इस बात को मैंने खुद कई बार महसूस किया. यहाँ तक कि अगर पीटूसी में भी एक लफ्ज़ गलत चला जाए तो वो पीटूसी काट दिया करते थे. मैंने अपनी पीटूसी में एक बार जानवर के बदले दरिंदा लफ़्ज का इस्तेमाल कर दिया तो वो भड़क उठे और वो खबर तब तक नहीं चलने दी जब तक मैंने सही लफ़्ज़ों का इस्तेमाल नहीं किया. शब्दों की मार या लफ़्ज़ों की सही लज्जत के बारे में असली मुहर लगाने वाला आज कोई नहीं दिखा.
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अपनी ही यादों में स्व. श्री अजय एन. झा


तुझसे बिछड़ा भी मैं तो ऐ दोस्त याद रख 
चेहरे पे तेरे अपनी नजर छोड़ जाउंगा

ग़म तो होगा सबको,पर सबका ग़म होगा जुदा

ना जाने कितने दीदये-तर छोड़ जाउंगा.
एस पी की याद से ही आज भी आंखें बेसाख्ता लवरेज हो उठती है।..

रविवार 4 जुलाई 2010 सारे ब्यूरो चीफ की मीटिंग थी। आजतक के मालिक ने , आस्ट्रेलिया से कुछ एक्सपर्ट बुलाया था जो हमलोगों को टेलीविजन न्यूज की बारीकियां समझाए। मैं,अजय चौधरी,विजय विद्रोही,मृत्युंजय झा,राकेश शुक्ला,मिलिंद खाण्डेकर आगे बैठे हुए थे। दोपहर तक हमलोग उबने लगे थे। मिलिन्द ने एक चिट एस पी को भेज दिया कि हमलोग बाहर भागने के मूड में हैँ। उसी चिट पर उनका जवाब आया “लाला ने लाखों रुपये खर्च कर ये ताम-झाम लगाया है। चूतियापा मत करो। कल सूद समेत वापस चुका लेना।” ajaykiawaz.blogspot.com (http://ajaykiawaz.blogspot.in/2010/07/blog-post_04.html) से साभार
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ककक

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