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Friday 31 October 2014

यशवंत ठोंकता तो सही है, लेकिन उसने (भड़ास) दुश्मन पाल लिये हैं

पूर्वी दिल्ली में ईस्ट एंड अपार्टमेंट की वो शाम, मैं और अजय नाथ झा

तारीख तो याद नहीं...हां महीना यही रहा होगा मई या जून, सन् 2013 । भयानक गर्मी। वक्त शाम करीब सात बजे के आसपास। जगह नोएडा से सटा पूर्वी दिल्ली का ईस्ट एंड अपार्टमेंट। इसी अपार्टमेंट के एक फ्लैट में रहते थे अजय नाथ झा, बेटे कैलविन और भाभी रीना के साथ। चाहे घर में कोई भी मेहमान हो। शाम के समय अजय झा का अपार्टमेंट के अंदर की सड़कों पर डेढ़ दो घंटा टहलना जरुरी था। यह बात अजय जी ने उसी दिन मुझे बताई थी। सो नाश्ता पानी करने के बाद सोफे से उठ खड़े हुए और बिना किसी भूमिका के बोले- बाबा चल मेरे टहलने का टाइम हो गया है। टहलते रहेंगे और गप्प भी करते रहेंगे।लिफ्ट में कुछ नहीं बोले। लिफ्ट से बाहर आते ही पूछा- और बता बाबा मार्केट (मीडिया और मीडिया वालों का) का क्या हालचाल है?

मीडिया का हाल मुझसे ज्यादा और पहले से आप जानते हैं, अब आपके जमाने का मीडिया (उसूलों वाला) कहां रह गया है! हर उस्ताद अपने चमचे/ चेले/ चंपू को संपादक बनाने में जुटा है। भले ही चमचे को अपने मुंह पर चिपकी झूठन (जूठन) साफ करना न आता हो। कथित उस्ताद मगर उस चमचे को भी सीधे संपादक बनाने के सपने दिखाने से बाज नहीं आते हैं। मौजूदा मीडिया का हाल वही है, अंधा बांटै रेवड़ी, बार-बार अपने को दे, ऐसे टॉपिक पर आप सवाल करके मेरे मुंह से आग क्यों उगलवाना चाह रहे हैं?’ मेरा जबाब सुनते ही खुलकर हंसे और मेरी पीठ पर जोर से थपकी मारी। टहलने के क्रम में तेज-तेज कदमों से आगे बढ़ने लगे। हंसी रुकी तो बोले...
बाबा इन चंपुओं का इलाज भड़ास सही करता है। यशवंत ने सबकी लंका लगा रखी है। कई मीडिया मठाधीश तो भड़ास ने पानी मांगने की हालत में भी नहीं छोड़े हैं बाबा... यशवंत ठोंकता तो सही से है, लेकिन उसने दुश्मन भी अपने बहुत पाल लिये हैं। जिसके पीछे लग जाता है मैंने देखा है कि बस उसके पीछे पड़ ही जाता है, लेकिन चलो कोई बात नहीं, मीडिया के तथाकथित महानुभावों को खुल्ले में ठोंकने के लिए कोई तो आया सामने। यह जरुरी भी था।
करीब एक घंटे टहलने के दौरान और भी तमाम बतातें हुई। मैं पसीने से तर-ब-तर होकर जब अपनी स्पीड कम करने लगा, तो बोले - ‘बस बाबा...हांफने लगे। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। तुमने दुनिया में देखा ही कहां है। संजीव तेरा वजन बहुत बढ़ने लगा है। इंसान की खुशहाल जिंदगी में मोटापा तमाम बीमारियों का रास्ता बनाता है। तुरंत अपना वजन कम कर..वरना यह ठीक नहीं होगा  तेरे लिए और बहू और मेरी बच्चियों के लिए भी (मेरी पत्नी और मेरी दोनो बेटियों)।नसीहत खरी थी, सो मैंने बात को बराना (घुमाना) चाहा, तो बीच में ही टोंक दिया...बोले—इधर-उधर मत दौड़, जो मैंने समझाया समझ आया कि नहीं?’ मतलब उस दिन मुझे पता चला कि, अजय झा वो शख्शियत थे, जो अपनी और अपने परिवार की खुशियों का जितना ख्याल रखते थे, उससे ज्यादा नहीं तो, कम से कम उतना ही अपने शुभचिंतकों (हमारे जैसे हमपेशा दोस्तों) का भी ख्याल रखते थे। हमपेशा दोस्तों का ही नहीं हमारे परिवारीजनों तक का।
तेज कदमों से टहलते-टहलते कब शाम के धुंधलके ने आकर हमें घेर लिया पता ही नहीं चला। इस दौरान अजय झा की अमिताभ बच्चन से दोस्ती, एक अखबार और चैनल में बंगलौर में तैनाती, देश के कई धन्नासेठों से दोस्ती-दुश्मनी और उनकी औकात/ हकीकत और 10-जनपथ (सोनिया गांधी का आवास) में बेरोक-टोक आने-जाने जैसी न मालूम कितने किस्से-कहानियां उस दिन उन्हीं की मुंहजुबानी सुनने को मिले। इसी बीच यह भी पता चला कि कैसे कम संसाधनों से चलने वाली दूरदर्शन जैसी संस्था (पुराने जमाने में) में उन्होंने एक साथ टीवी स्क्रीन पर 16 विंडो बनाने का रिकार्ड कायम किया था। अगैरा-बगैरा...
रोजी-रोजगार-बेरोजगारी की, घर परिवार की कुछ और बातें कह-सुनकर अजय झा फ्लैट की लिफ्ट की ओर बढ़ गये। लिफ्ट का दरवाजा बंद होते-होते, तो आंखों के सामने था वो हंसता हुआ गोरा-चिट्टा चेहरा और कानों में अजय जी के वे आखिरी अल्फाज, ओके बाय बाबा टेक केयर, सीयू अगेन, बच्चों को भी लेकर आना बाबा किसी दिन...बैठेंगे गपियायेंगे आराम से  बाय...और इसी साथ लिफ्ट का दरवाजा बंद गया। और वो मुलाकात अजय जी से मेरी अंतिम मुलाकात साबित हुई।
आज (31 अक्टूबर 2014) दोपहर करीब बारह बजे भोपाल से माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता  विवि के वरिष्ठ शिक्षक श्री पुष्पेंद्र पाल सिंह जी का फोन आया। उन्होंने पूछा- संजीव यह अजय एन झा क्या वही हैं, जिनसे आपने (मैंने) मेरी कॉफ्रेंस पर बात कराई थी! मैंने हां कहा, तो पीपी सिंह जी बोले, संजीव अगर यह वही अजय झा हैं, तो कनफर्म कर लो, शायद उनका देहावसन हो गया है।इसके बाद मैंने सीधे अजय जी के मोबाइल पर फोन लगाया। उधर से केल्विन (अजय झा के इकलौते बेटे और 10वीं के डीपीएस नोएडा के छात्र) ने फोने अटेंड करते ही कहा....
यस चौहान अंकल...डैडी इज नो मोर। मम्मा (मां) इस हाल में नहीं हैं कि, आप से बात कर पायें। हम लोग दिल्ली से दिवाली वाले दिन बंगलौर में रहने वाले पापा के दोस्त राव अंकल के यहां पहुंचे थे। यहां पापा की तबियत खराब हुई। अस्पताल में एडमिट कराया। डिस्चार्ज होकर घर पर आ गये थे। कल रात (30 अक्टूबर 2014) को ब्लड वोमेटिंग हुई और हार्ट अटैक आ गया। बस उसके बाद कुछ नहीं रहा। सॉरी अंकल मैं बाद में बात करता हूं आपसे अभी सब लोग डैडी को क्रिमिनेशन के लिए ले जाने की तैयारी कर चुके हैं...बहार मेरा इंतजार कर रहे हैं।.... और इसके साथ ही फोन कट गया। और मैं निरुत्तर, अवाक सा खड़ा कभी दीवार को देखता, कभी छत के पंखे को देखता हुआ...पंख कटे बेवस पंक्षी की मानिंद खामोश होकर बैठ गया। उन तमाम लम्हों में खो गया, इस इस मानव-योनि में अजय नाथ झा के साथ बिताये थे। बहुत देर तक सोचता रहा, कि क्या वक्त बलवान होने के साथ-साथ इतना क्रूर और निष्ठुर भी है।

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