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Friday 15 July 2011

तुम्हारा खून.... खून, हमारा खून....पानी

    मातम पर मंत्री का मनोरंजन!
किसी छोटे बच्चे को मामूली चोट लग जाये। तो घर में कोहराम मच जाता है। परिवार में अगर किसी की मौत हो जाये, भले ही मरने वाला बुजुर्ग ही क्यों न हो, तो पूरे गांव में उस दिन गांव के वे लोग, जिन्हें शहर के पढ़े-लिखे, "अनपढ़",  "देहाती" और "गंवार" कहते-मानते हैं, पूरे गांव में बुजुर्ग की मौत वाले दिन कोई खुशी नहीं मनाते। यहां तक कि इत्तिफाक से अगर उस दिन किसी के घर में बेटे ने जन्म लिया हो, तो भी बधाई की ढोलक नहीं बजाई जाती। और तो और गांव के लोग रेडियो बजाना-सुनना भी "अशुभ" मानते हैं। अगर मौत पड़ोसी के घर में हुई हो, तो मातम वाले घर में पड़ोसी घरों की औरतें खाना बनाकर देने जाती हैं। ताकि ग़मज़दा परिवार का ग़म कुछ बांटकर कम किया जा सके।
ये तो एक बानगी थी। किसी अपने के दर्द, गांव के उन लोगों की समझ-बूझ-सहयोग की, जिन्हें शहर में रहने वाले उच्च-शिक्षा प्राप्त "लाट-साहब" या "धन्नासेठ", "गंवार" और "देहाती" से ज्यादा कुछ नहीं समझते। जो गांव और गांव में रहने वाले ग्रामीण, देश के शहरों और उनमें रहने वालों की रीढ़ हैं, उन्हीं को कुछ कथित "साहब-लोग" कभी-कभार सड़क पर अपनी कार के सामने आ जाने पर तैश में "जाहिल" कहने में भी  शर्म नहीं खाते। आईये अब बात करते हैं उस जमात की, जो "पल-पोस" ही हमारी-आपकी और उन गांव वालों की दम पर रही है। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया के किसी भी देश में इंसान से पैदा हुई इस जमात को कहते हैं- "नेता"। अगर जनता वोट देकर न चुने, तो शायद एक आम-इंसान, नेता न बन पाये। यानि वोट देकर हम खुद ही अपनी जमात के एक आम इंसान को नेता बनाकर, खुद से कुछ खास या अलग पहचान दे देते हैं। बस यही हमारी भूल कहिये, या फिर किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूरी। हमारे-आपके बीच से हमारे ही द्वारा खास बनाया गया यही नेता, अक्सर हमारे-आपके दुखों का कारण बन जाता है। शायद इसलिए क्योंकि नेता बनने के बाद, वो इंसान नहीं....सिर्फ नेता बनकर रह जाता है। भारत के मौजूदा केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय और पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री अशोक प्रधान, भी इसी खास जमात के सदस्य यानि "नेता" हैं।
जनाब सुबोधकांत साहब सरकार में कुर्सी पर वर्तमान में काबिज हैं। जबकि अशोक प्रधान के नीचे कुर्सी भले न हो, लेकिन कुर्सी की "हनक" अब भी बरकरार है। चूंकि ये दोनो ही अब इंसान से "नेता"  बन चुके हैं, इसलिए शायद इनका "इन्सानियत" से सरोकार नहीं रह गया। ये मैं नहीं, इन दोनो महानुभावों के "कर्म" खुद ही बयां करते हैं। कैसे...आईये जानते हैं..मय गवाह और सबूतों के, कि क्यों और कैसे ये दोनो "नेता"  बनने के बाद नहीं रह पाये..."इंसान"।
सच पर सोचने को मजबूर करता पहला दृष्य:13 जुलाई 2011, समय शाम करीब सात बजे। स्थान...मुंबई। एक के बाद एक तीन जबरदस्त बम धमाके। 20 से ज्यादा बेगुनाहों की मौत। 100 से ज्यादा घायल। सड़क से सराय तक कोहराम। क्या राज्य क्या केंद्र सरकार। सबके सब पसीने से तर-ब-तर। प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री-संतरी तक की जुबान तालू से लगी हुई। जिसे देखिये अफरा-तफरी में। चारो और त्राहि-माम, त्राहि-माम।
सच का दूसरा दृष्य:
समय रात करीब नौ बजे। स्थान- दिल्ली का ग्रांड होटल। कार्यक्रम...पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री अशोक प्रधान की बेटी द्वारा डिजाइन कपड़ों की नुमाईश करती अधनंगी महिला मॉडल्स।  जश्न में ताली बजाने और वाह-वाह करने वालों की जमात में थे भारत सरकार के केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय, पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रुडी की पत्नी नीलम रुडी, दिल्ली की पूर्व मेयर डा. आरती मेहरा, भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव वाणी त्रिपाठी। सच का तीसरा दृष्य: मुंबई में बम धमाकों  के वक्त पर ही दिल्ली में एक और पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया था। "नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ आर्टस एंड लेटर्स" समारोह फ्रेंच सरकार द्वारा आयोजित किया गया था।
पूर्व विश्व सुंदरी और बॉलीवुड के शंहशाह की पुत्रवधू एश्वर्या राय बच्चन को इस समारोह में सम्मानित किया जाना था। मुंबई बम धमाकों की खबर सुनते ही उन्होंने इस समारोह में शामिल होने से ही इंकार कर दिया।
सच का चौथा दृष्य:सुबोधकांत सहाय
....ऐसी घटनाओं के बावजूद जीवन रुक नहीं जाता। हम जो कर रहे हैं, हमें करते रहना चाहिए। ज़िंदगी इसी का नाम है।
आरती मेहरा
......मुझे नहीं पता चला कि बम ब्लास्ट हो गया। मुझ पर तो मोबाइल ही नहीं था।
सच का अंतिम दृष्य:बिलकुल सही सुबोधकांत सहाय साहब। आरती मेहरा जी। मुंबई बम धमाकों में कोई आपका अपना नहीं मरा था। अगर आपके अपने का खून बहा होता, तो आप ग्रांड होटल में फैशन शो नहीं देख रहे होते। मुंबई में किसी अस्पताल में बदन से पसीना चुहचुहाते, दहाड़े मारकर बिलखते हुए अपने की ज़िंदगी की भीख मांगने के लिए चीख-चिल्ला रहे होते।अंत में :बस यही है एक इंसान का, इंसानों के बीच से निकलकर, किसी इंसान के नेता बनने तक की कहानी के उतार-चढ़ाव का कड़वा सच। 

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