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Friday, 31 May 2013

हुजूर सज़ा मुझे जरुर दीजिए.....

 
 
 
 
 
मेरे मुंसिफ हर गुनाह की सजा मेरे आप ही दीजिए
अर्ज इतनी सी है गुनाह तो मुझको मेरा बता दीजिए
मैं अपने अल्लाह को तू अपने राम को बहलाता रहे
चरागों के कहां दर्द होता है, चराग रोज जलाता रहे
आंचल सुलगता है अबला का उसे तू सुलगने दे
बरगद को मत दिखा छांव धूप में उसे झुलसने दे
भटके राही को दिखा मंजिल क्यों गुनाह करता है
हर खंजर वाला हाथ जरुरी नहीं रुह फनाह करता है
क़ातिल अपना, खंजर अपना, गर्दन भी अपनी है
बस तारीख मुकम्मल चाहिए कब गर्दन कटनी है
अदालत होगी उनकी मुजरिम आप मुझे बनाईये
दे पायेंगे हुजूर सज़ा मुझे, रज़ा उनकी पूछ आईये
 

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