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Tuesday 4 June 2013

....पानी क्यों खूं सा मुझे नज़र आता है?

मिट जायेगा निशां, जानकर बहता है रेत की ओर पानी, बहने दो
क्यों तुले बैठे हो खुलवाने को मेरी जुबां, राज को राज ही रहने दो
यूं तो खुद का ही चेहरा था देखा मैंने, मगर तोड़ आईने को दिया
हम क्या हैं, टूटे आईने में देखा चेहरा तो आईने ने समझा दिया
मशरुफ ज़िंदगी इस कदर हुई, हमको मरने की याद नहीं रही
देखा जनाजा दुश्मन का तो सोचा या मौला मुझसे तो भला यही
कब्रिस्तान में जगह की मारा-मारी, श्मशान में कफ़नखसोटी है
वो बेचते हैं हम खरीदते हैं क़फन चमड़ी अब सबकी ही मोटी है
रात में चांद और दिन में सूरज हमको बेइंतहा यार झुलसाता है
खेलूं मैं दरिया में, फिर क्यों पानी भी खूं सा मुझे नज़र आता है
तुम्हारे आने के इंतजार में हमने तमाम ज़िंदगी यूं ही गुजार दी
जाने के बाद उसके पूछता हूं मैं, जीती बाजी तो मैंने नहीं हार दी
....चौहान राजा

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