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Saturday, 8 June 2013

सड़क पर जूतम-पैजार-सिपाही-साहब सबसे सीएम परेशान

हाल-ए-बयां......यूपी पुलिस

संजीव चौहान


उच्च शिक्षा प्राप्त। पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक। पिता राजनीति के गुरु। युवा सोच, युवा मन, युवा उम्मीदें-सपने। सब कुछ जब युवा है, तो फिर संकट कहां, कैसा और क्यों? एक अदद यही वह सवाल है जिसने, देश के सबसे बड़े सूबे यानि उत्तर प्रदेश के चीफ मिनिस्टर को हिलाकर रख दिया है। मुख्यमंत्री चाहते हैं, कि उनके राज में जनता सुखी और भयमुक्त हो। देश में सबसे बड़े राज्य के, सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री होने का गौरव बना रहे। इन्हीं चाहत और उम्मीदों के साये में अखिलेश यादव ने इन दिनों अपनी उस पुलिस को सुधारने का वीणा उठाया है, जो कभी भी, कहीं भी सूबे की सल्तनत और साख की ऐसी-तैसी करवा बैठती है।
मुख्यमंत्री के सामने यक्ष-प्रश्न यह है कि, सूबे की पुलिस खराब है? या फिर पुलिस की छबि को खराब कर दिया गया है। इस सवाल का जबाब खोजने की उम्मीद पाले मुख्यमंत्री ने फिलहाल राज्य के पुलिस महानिदेशक को हिदायत दी है, कि वो पुलिस विभाग को पहले खुद करीब से पढ़ें। पुलिस महकमे के बारे पुलिस महानिदेशक को ज्ञान हासिल करते समय इस सवाल का जबाब जरुर खोजना होगा कि, पुलिस की छबि उसके अपने ही कारनामों/करतूतों ने खराब की है। या फिर इसके लिए कुछ हद तक जबाबदेही जनता की भी है। इसके साथ ही पुलिस को सुधारने के कारण-निवारण भी खोजे जायें।

प्रक्रिया शुरु कर दी गयी। पुलिस महानिदेशक के निर्देश पर पुलिस मुख्यालय (लखनऊ) जनसंपर्क विभाग के प्रमुख एडिश्नल एसपी नित्यानंद राय और राज्य के उप-सूचना निदेशक डॉ. अशोक कुमार शर्मा को सीएम साहब के फरमान को फलीभूत करने की जिम्मेदारी सौंप दी गयी। यूपी कॉडर के वरिष्ठ आइपीएस और कानून-व्यवस्था/एसटीएफ प्रमुख अरुण कुमार को इस ऑपरेशन की बागडोर सौंपी गयी है। अशोक शर्मा और राय सहाब सूबे के जिला-मण्डल मुख्यालयों में जा-जाकर पता लगा ही रहे थे, कि पुलिस खराब है या उसकी छबि खराब कर दी गयी है। इसी बीच खबर आयी कि, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सुरक्षा में तैनात पीएसी के दो जवान लखनऊ में सिर-फुलव्वल कर बैठे। दोनो ने बीच सड़क पर ऐसी लाठी भांजी कि, देखने वालों की रुह कांप गयी और सूबे की पुलिस को सड़क पर बदहाल देखकर जनता की हंसी निकल गयी। खून से लथपथ हालत में दोनो जवानों को गिरफ्तार करके पहले इलाज कराया गया। बाद में गिरफ्तार कर लिया गया। सीएम साहब की सुरक्षा में तैनात सिपाहियों की सड़क पर सिर-फुटव्वल को लेकर खाकी की खूब फजीहत हुई। यह खबर जन-मानस के जेहन से अभी हटी
भी नहीं थी कि, 29 मई 2013 को मथुरा जिले में तैनात एक दारोगा और उसकी मातहत महिला पुलिसकर्मी ने दिन-दहाड़े सर-ए-राह बूढ़ी महिला पर लाठी भांजकर कोहराम मचा दिया। हांलांकि इस बीच मुख्यमंत्री के सिपहसालार उप-सूचना निदेशक और पुलिस मुख्यालय में जनसंपर्क विभाग प्रमुख, जिला-मण्डल स्तर पर घूम-घूमकर यह पता लगाने में जुटे रहे कि, पुलिस की छवि खराब है, या फिर पुलिस खराब है। एक तरफ पुलिस लाठियां भांजती रही, दूसरी तरफ उसकी छवि बिगड़ने के कारणों का पता लगाने के ध्रुव प्रयास जारी रहे। इसी बीच नोएडा-ग्रेटर नोएडा इलाके से खबर आई कि, पुलिस ने शिकायतकर्ता को ही आरोपी बना डाला। मतलब एक के बाद एक खाकी की कारस्तानी सामने आती रही। दूसरी ओर सरकारी आला-हुक्मरान मालूमात करने में जुटे रहे कि, आखिर पुलिस की छवि जनता की नज़रों में खराब क्यों है? पुलिस के प्रति जनता की सोच मैली हो चुकी है या फिर पुलिस!
इससे पहले 18 मई 2013 को बरेली में सरकार के लखनऊ से रवाना किये गये सिपहसालारों ने मण्डल मुख्यालय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया । यह आयोजन जिला पुलिस लाइन बरेली में हुआ। परिचर्चा का विषय था- पुलिस खराब है या उसकी छवि! जनता के बीच पुलिस की छवि खुद पुलिस की कारस्तानियों के चलते खराब होती है, या फिर मीडिया और जनता, पुलिस की छवि बिगाड़ने में लगी रहती है। मेरे दृष्टिकोण से इस परिचर्चा में आम-जनता भी होनी चाहिए थी। वजह, क्योंकि पुलिस से सबसे शिकायत जनता को ही रहती है। परिचर्चा में पुलिस-मीडिया भरपूर संख्या में थी। आम-जनता यहां भी नदारद थी। परिचर्चा शुरु हुई। पुलिस और मीडिया में तर्क-कुतर्क हुए। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला। परिचर्चा खतम हो गयी। खराब पुलिस है या उसकी छवि ही खराब है? सवाल का जबाब जहां से उठा था, वहीं दम तोड़ गया। पुलिस की छवि सही करने की उम्मीद लिए हुकूमत के गलियारे (लखनऊ) से निकले मुख्यमंत्री के सिपहसलार अगले जिले में बढ़ गये। इसी बीच 3 जून 2013 को खबर आयी कि, मुख्यमंत्री के गृह-जनपद इटावा में भीड़ ने एक डिप्टी एसपी (पुलिस उपाधीक्षक) की जबरदस्त पिटाई कर दी। इस पिटाई के गवाह तमाम मीडियाकर्मी, कैमरे भी बने। घटना थाना सिविल लाइन इलाके के ईंटगांव में रात के वक्त घटी। पुलिस का पक्ष था कि, डिप्टी एसपी पर हमला करने वालों में कुछ असामाजिक तत्व और शराब के नशे में भी लोग थे। डिप्टी एसपी को पीटने वाली भीड़ का कहना था कि, इलाके में लगी आग में एक महिला की मौत हो गयी। उसका पति गंभीर रुप से झुलस गया। इसके बाद भी पुलिस और फायर मौके पर देर से पहुंची। देर से पहुंचने के बाद भी पुलिस वाले भीड़ को ही हड़काने लगे। बात इसीलिए इतनी बढ़ गयी कि, डिप्टी एसपी को भीड़ ने धुन डाला। जैसे-तैसे जान बचाकर डिप्टी एसपी वहां से भागे। इस घटना से सवाल यह पैदा होता है, कि आखिर वो नौबत ही क्यों आयी कि, भीड़ का गुस्सा बेकाबू हो गया। यानि कहीं न कहीं कुछ न कुछ खाकी ने यहां भी गड़बड़ कर ही दी। अब दूसरा पक्ष यह भी है कि, अगर पुलिस ने कुछ गड़बड़ी कर दी , पुलिस की लापरवाही सामने आयी, तो फिर भीड़ को भी इस तरह कानून को हाथ में नहीं लेना चाहिए था। मीडिया में इसलिए यह खबर खूब उछली क्योंकि, डिप्टी एसपी मुख्यमंत्री के गृह-जनपद में पिटे।
पुलिस से पब्लिक परेशान है या पब्लिक से पुलिस? सवाल उलझा हुआ है। इस पर माथापच्ची के मायने वक्त जाया करना। जरुरत है इस बात की, कि चाहे जैसे भी हो, जनता और पुलिस के बीच मौजूद खाई को जल्दी से जल्दी कम कर लिया जाये? सवाल पैदा होता है कि, पहल कौन करे? इसके लिए सरकार ने ही पहल शुरु कर दी। अब मुश्किल यह है कि, एक ओर सरकार समस्या का समाधान खोजने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है, दूसरी ओर मुख्यमंत्री के ही गढ़ में पुलिस अफसर की धुनाई हो जा रही है। मथुरा में बेकाबू दारोगा मातहत महिला सिपाही के साथ बूढ़ी महिला पर लाठियां बरसा रहा है। जब तक पुलिस का यह तांडव खतम नहीं होगा। जब तक सिपाही से लेकर पुलिस महकमे के साहब तक खुद की बोलचाल-व्यवहार नहीं बदलेंगे, तब तक तो इस मुसीबत से निजात मिलना मुश्किल लगता है।
अगर वाकई सूबे की सरकार जनता के बीच पुलिस की बेहतर छवि बनाने की इच्छुक है, तो उसे बाकायदा पुलिस महकमे को इसका प्रशिक्षण देना होगा, कि जनता से बढ़कर पुलिस के लिए कोई नहीं है। जिस जनता से पुलिस इज्जत पाने की उम्मीद रखती है। जिस जनता को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी पुलिस की है, उसी जनता के प्रति जब तक पुलिस का रवैया नहीं सुधरेगा, तब तक खाकी की छवि सुधर पाना मुश्किल है।
अक्सर आरोप लगते रहे हैं, कि मीडिया बेवजह ही पुलिस की छवि खराब करती रहती है। इस बात में कुछ हद तक दमखम नज़र आ सकता है। सौ फीसदी यह भी सच नहीं है। अपनी छीछालेदर का ठीकरा मीडिया के सिर डालकर पुलिस खुद को न बचाये। पुलिस को सोचना यह चाहिए कि, आखिर मीडिया ने अगर उसकी कोई चीज उजागर की है, तो आखिर क्यों? पुलिस कहती है कि, मीडिया पुलिस की नकारात्मक खबरें अक्सर प्रचारित-प्रसारित करती है। तो यह पहल भी पुलिस को ही करनी चाहिए कि, वह ऐसा कोई काम करे ही न जिससे, उसकी नकारात्मकता साबित हो। मीडिया वही करती है, जो उसके सामने होता है। दारोगा अगर सड़क पर एक बूढ़ी महिला को लाठियों से पीट रहा है, पुलिस शिकायतकर्ता को या बदमाश से बचाने वाले को ही आरोपी बना दे...और मीडिया इन खबरों का प्रचार-प्रसार कर दे, तो इसमें मीडिया कहां और क्यों दोषी है ?  मीडिया अगर दारोगा को बूढ़ी महिला पर लाठी बरसाते हुए सामने लाती है, तो मुख्यमंत्री के गृह-जनपद में डिप्टी एसपी के ऊपर हुए हमले की खबर भी मीडिया प्रमुखता से दिखाती है। वजह चाहे जो भी रही हो, लेकिन मीडिया डिप्टी एसपी पर हमले की घटना को भी गलत बताता है। मीडिया इस बात को कभी बढ़ावा नहीं देता है कि, पब्लिक पुलिस पर हमले करे। मीडिया ही है जो, गाजियाबाद में इंद्रापुरम थाने के दो सिपाहियों की गिरफ्तारी की खबर को भी प्रमुखता से प्रचारित-प्रसारित करती है।



कुल जमा यही बात निकलकर सामने आती है, कि पुलिस की छवि ही खराब नहीं है, बल्कि पुलिस का व्यवहार-बोलचाल की भाषा भी खराब है। ऐसा भी नहीं है कि, सभी पुलिस वाले खराब हैं। जो सही और व्यवहार कुशल पुलिसकर्मी हैं, उनकी शालीनता दबकर रह गयी है, उन पुलिस कर्मियों की हरकतों के सामने जो, पूरे पुलिस महकमे की छीछालेदर कराने के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे में जरुरत इस बात की है, कि पुलिस मीडिया को काबू करने के बजाये, अपने गिरहबान में झांके..कि कमी कहां है? पहले पुलिस खुद को सुधारे, बाकी सब खुद-ब-खुद ही सुधरता चला जायेगा। सड़क पर ड्यूटी देने वाला सिपाही अपने व्यवहार को सुधार ले। तो संभव है कि, काफी हद तक पुलिस की छवि सुधर जाये। पुलिस महकमे में सिपाही से लेकर साहब तक को इस बात की ट्रेनिंग कराई जाये, कि जनता ही पुलिस की इज्जत बना और बिगाड़ सकती है। पुलिस जनता के बीच जिस रुप में पहुंचेगी, जनता पुलिस के प्रति वैसा ही नजरिया बनायेगी। लिहाजा जरुरत मीडिया को कटघरे में खड़ा करने की नहीं, जनता की नज़र में पुलिस के खरा उतरने की है। हां ऐसा कोई नुस्खा नहीं है कि, जब तक पुलिस अपना व्यवहार और भाषा शैली नहीं बदलेगी, तब तक ख़ाक में मिल रही खाकी की छवि को मीडिया या फिर आसमान से उतरा कोई फरिश्ता संभाल/सुधार देगा। सुधरना तो खुद पुलिस को ही पड़ेगा। पुलिस अगर खुद को सुधार ले, तो जनता और मीडिया का सहयोग उसे खुद ही मिलना शुरु हो जायेगा।

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