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Sunday, 9 June 2013

महफिल में उनके ही घुंघरू फूटकर रोये....


सर-ए-बाजार मैं बिकना चाहता हूं खरीददार तो ईमान वाला कोई लाओ
मजहब के नाम पर मासूमों की बोलियां लेकिन अब तुम मत लगाओ
वो आये महफिल में गजल सुनाई खुद रोये, मेहरबां भी रुलाये और चले गये

उनकी महफिल में उनके ही घुंघरु फूट-फूटकर रोये हम नहीं गये भले ही रहे
तमाम यादों का पुलिंदा हमने उनकी संभाल कर रखा है तुम्हें चाहिए तो बोलो
यादें हैं कोई ज़ख्म या फफोले नहीं, यादों के सामने मरहम का मुंह मत खोलो
अरसे बाद वह आया बोला, मिला, बैठा, हंसा, रोया, पलक लेकिन नहीं झपकी
अब जो आया करीब मेरे आंख में उसके आग है या समुंदर बस देखूंगा अबकि...चौहान राजा

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