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Friday, 27 September 2013

मुजफ्फर नगर दंगा- रणनीति ‘फेल’हुई या राजनीति ‘पास’!

औसतन हर मौत पर एक अफसर की 'आहूति'

संजीव चौहान
मुजफ्फर नगर दंगों में कितने मरे? इसकी सही गिनती फिलहाल वही 46 है, जो सरकारी आंकड़ो में दिखाई दे रही है। दंगा होना था हो गया। जिन्हें दंगा कराना था करा चुके। दंगे की बलि जिन्हें चढ़ना था, चढ़ चुके। कुल जमा मुजफ्फर नगर के इन दंगों में जिसे जो मिलना-खोना था, वो मिल और खो चुका है। दंगों की भेंट अगर बेकसूर चढ़े, तो इन दंगों  लपटों में झुलसने से खुद को बचा अफसर और कर्मचारी भी नहीं सके। इसकी वजह राजनीतिक रही या फिर प्रशासनिक । यह मुद्दा बाद का है। दंगे हुए। सब जानते हैं। दंगे बेकाबू क्यों हुए? इस सवाल के जबाब में सब जिम्मेदार "झूठ" बोलने में नहीं शरमा रहे हैं। जाने-अनजाने जिन्होंने दंगों का सच कबूला या उगला और "टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन" में फंसे, उन पर दोहरी मार पड़ गयी। सच उगलने के बदले अब सत्ता उन्हें सच बोलने की  "सजा" देने पर आमादा है। जिन सरकारी कर्मचारियों/ अधिकारियों ने, (जिनमें ज्यादातर पुलिस विभाग के हैं), कैमरे में सच उगला सब के सब निपटाये जा रहे हैं। किसी का निलंबन या ट्रांसफर, किसी को लाइन-हाजिर किया जा रहा है।
मुजफ्फर नगर दंगों की भेंट चढ़ा पहला इंसान कौन था? इस सवाल का जबाब अभी तक भले ही सामने न आया हो, या यूं कहें कि यह सच अभी तक सामने नही लाया गया है। हां, यह जरुर है कि, इन दंगों के बाद सबसे पहले सत्ता की आंख की किरकिरी बने उस समय मुजफ्फर नगर में तैनात आईएएस अधिकारी और (जिलाधिकारी) सुरेंद्र सिंह और महिला एसएसपी मंजिल सैनी। मुजफ्फर नगर के कवाल इलाके में दंगे की शुरुआत 27 अगस्त 2013 को हुई। उसी रात डीएम और एसएसपी का तबादला कर दिया गया। एसएसपी का चार्ज पहले से ही जिले में बहैसियत पुलिस अधीक्षक (अपराध) तैनात कल्पना सक्सेना को सौंप दिया गया। लखनऊ में बैठे सरकारी इंतजामियों को लगा होगा, कि एसएसपी (मंजिल सैनी) से उनकी मातहत (एसपी क्राइम कल्पना सक्सेना) ज्यादा काबिल होगी।
सिपहसलारों ने हुक्मरानों को बताया गया कि, शामली और सदर में एसडीएम की पोस्टिंग काटकर मुजफ्फर नगर में ही मौजूदा एडीएम (फाइनेंस) राजेश श्रीवास्तव सबसे काबिल अफसर बचे हैं। सो आनन-फानन में बिना आगे-पीछे की कुछ सोचे-समझे हुक्मरानों ने राजेश श्रीवास्तव को डीएम का  कार्यभार सौंप दिया। अब लखनऊ में मौजूद हुक्मरान वही सुन और कर रहे थे, जो राजेश श्रीवास्तव और कल्पना सक्सेना बता रही थीं। जाहिर है कि, जिन्हें शहर में शांति बनाये रखने की बागडोर सौंपी गयी हो, आला-हुक्मरानों का उन पर विश्वास करना मजबूरी और जरुरी दोनो था। भले ही ये दोनो आला-अफसर इसके काबिल थे या नहीं। यह बाद का मुद्दा है।
कुल मिलाकर मुजफ्फर नगर दंगों में ज्यों-ज्यों आग फैलती गयी, त्यों-त्यों हुक्मरान यहां तैनात मातहतों को बलि बनाकर उन्हें उनकी औकात बताकर निपटाते रहे। बिना यह बिचार किये, कि आखिर मुजफ्फर नगर या उसके आसपास के इलाकों में खून-खराबा बढ़ता क्यों जा रहा है? दंगों से निपटने की अगर सही रणनीति बनायी होती। खुफिया तंत्र का नेटवर्क मजबूत रहा होता, तो संभव था कि, दंगों में मरने वालों की संख्या  कम होती। साथ-साथ सरकार को अपनी ही सरकारी मशीनरी (कर्मचारी, अधिकारी सस्पेंड, ट्रांसफर, लाइन-हाजिर करके) खुद ही नाकारा साबित नहीं करनी पड़ती।
प्रसंगवश यहां यह भी उल्लेख कि, मुजफ्फर नगर के दंगों से ठीक पहले यही सूबे के अतिरिक्त महानिदेशक (कानून एवं व्यवस्था) अरुण कुमार पड़ोसी जिला गाजियाबाद में  दल-बल के साथ पहुंचे थे।  लंबे-चौड़ ताम-झाम के बीच अरुण कुमार ने आला-मातहतों के साथ गोपनीय मीटिंग की थी। मीटिंग के बाद  खबरनवीसों ने सूबे में अपराध नियंत्रण की बदतर हालत पर सवाल किये। इन सवालों के जबाब में अरुण कुमार ने दो-टूक और टका सा जबाब परोसा कि, - "मैं यहां (गाजियाबाद) क्राइम कंट्रोल की मीटिंग के लिए नहीं, बल्कि दंगा कंट्रोल करने के लिए आया हूं।"
इसके चंद दिन बाद, उसी गाजियाबाद का पड़ोसी जिला मतलब मुजफ्फर नगर दंगों की भेंट चढ़ गया। उन्हीं दंगों की भेंट, जिन दंगों को नियंत्रित करने की रुप-रेखा बनाने के लिए अरुण कुमार लाव-लश्कर के साथ लखनऊ से गाजियाबाद पहुंचे थे। मुजफ्फर नगर दंगों के तुरंत बाद अरुण कुमार का सूबे से बाहर जाकर नौकरी करने की जिद पर अड़ना। अचानक छुट्टी लेकर चले जाना। इस सबको क्या माना जाये! मुजफ्फर नगर के दंगो को लेकर अरुण कुमार खुद को असहाय/ असफल महसूस कर रहे हैं।
जिस विश्वास के साथ अरुण कुमार दंगो से निपटने की रणनीति बनाकर गाजियाबाद से लखनऊ वापिस गये, उनकी वो रणनीति औंधे मुंह गिर पड़ी । अरुण कुमार को अब आत्म-ग्लानि होने लगी है। इसी के चलते अब वे सबकी आंखों की किरकिरी बनने के बजाये समय रहते, सूबे से बाहर जाकर खुद को कथित तौर पर 'सेफ' करने की सोच रहे हैं! अरुण कुमार को जो सोचना-करना है, सोचते-करते रहें। मुजफ्फर नगर की आंच ने उन्हें भी नहीं बख्शा ।
मेरे ख्याल से मुजफ्फर नगर दंगे की लपटों में झुलसे, वे ही अब तक के सूबे की सरकारी-मशीनरी के सबसे बड़े ओहदेदार साबित हुए हैं। खैर छोड़िये इसे। अरुण कुमार तो खुद ही जाने की दरखास लखनऊ के दरबार में लगा चुके थे। अतिरिक्त महानिदेशक (कानून-व्यवस्था) से उनको हटाया जाना, उनके लिए तो मन मांगी मुराद पूरी होने जैसा हो गया। अरुण कुमार की कुर्सी पर आईपीएस अधिकारी मुकुल गोयल को बैठा दिया गया। मुकुल गोयल नहीं बैठते तो कोई और बैठता।
दंगों की आग को जब कल्पना सक्सेना और राजेश श्रीवास्तव भी कम नहीं कर पाये, तो उनकी तैनाती करने के अपने ही फैसले पर सूबे के हुक्मरानों को हैरानी (पछतावा नहीं) होने लगी। लखनऊ में आला-कमान कनफ्यूज हो गया। लिहाजा बिना उसने अपने अगले फैसले में सहारनपुर रेंज के डीआईजी (पुलिस उप-महानिरीक्षक) दुर्गा चरण मिश्रा और कमिश्नर सुधीर श्रीवास्तव को हटाकर उनकी कुर्सी छीन ली। सुधीर श्रीवास्तव की जगह पर पूर्व में मुजफ्फर नगर के डीएम (जिला अधिकारी) रह चुके भुवनेश कुमार को सहारनपुर रेंज का कमिश्नर बना दिया। जबकि दुर्गा चरण मिश्रा से छीनी गयी कुर्सी पर अशोक जैन को डीआईजी बना दिया गया। इस उम्मीद में कि, शहर को अब दंगों की लपटों से महफूज कर लिया जायेगा। अशोक जैन पूर्व में मुजफ्फर नगर के एसएसपी रह चुके हैं। उन्हें इलाके के भौगोलिक और सामाजिक गुणा-गणित की जानकारी, निपटाये गये अफसरों से ज्यादा होगी। इस उम्मीद के साथ। जबकि कल्पना सक्सेना से जिले के एसएसपी का चार्ज छीनकर 28 अगस्त 2013 को सुभाष चंद दुबे को सौंप दिया गया। जबकि एडीएम (फाइनेंस) राजेश श्रीवास्तव से जिले की बागडोर छीनकर कौशल राज शर्मा को डीएम बना दिया गया।  आला-कमान की नजर में एसएसपी सुभाष चंद दुबे 10-12 दिन में ही करकने लगे। लिहाजा 9 सितंबर 2013 को पहले तो उनसे जिले के एसएसपी की कुर्सी छीन लगी गयी,  बाद में उन्हें  लखनऊ वालों ने (सरकार) निलंबन आदेश पकड़ा दिया। गुप्ता के निलंबन से खाली पड़ी कुर्सी पर सरकार ने प्रवीन कुमार सजा दिये। दिल में इस उम्मीद को पाले और ख्वाब को सजाये हुए कि, प्रवीन कुमार जिले को दंगों की लपटों से महफूज करने में कामयाब हो जायेंगे। सत्ता का पासा या दांव कहिये, यहां भी उल्टा ही पड़ा । 9 सितंबर को मुजफ्फर नगर जिले के एसएसपी की कुर्सी पर सजाये गये, प्रवीन कुमार भी 24 सितंबर 2013 को बीमार होकर मेडिकल-लीव (चैकत्सिक अवकाश) पर चले गये।
यह तो थी दंगें की लपटों की भेंट चढ़े बेकसूरों के साथ-साथ आला-अफसरों के निपटने या निपटाये जाने की एक बानगी। मुजफ्फर नगर दंगों की आंच को कम भले ही कोई अफसर न कर पाया हो, हां इतना जरुर है, कि सूबे की सल्तनत ने जिस-जिस अपने मातहत आला-पुलिस/प्रशासनिक अफसर को काबिल समझने की गलती की, वे सब कतार में लगकर असफल साबित होते चले गये, या असफल साबित कर दिये गये। इसमें संदेह नहीं है। इनमें मुजफ्फर नगर जिले में तैनात खतौली के पुलिस क्षेत्राधिकारी (सीओ) अरुण सिरोही (निलंबित), क्षेत्राधिकारी बुढ़ाना और दण्डित किये गये कम से कम 10 पुलिस इंस्पेक्टर  भी शामिल हैं।


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