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Friday 16 May 2014

सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या हुआ....दरकते ख्वाब

                                                                        -संजीव चौहान-
सपने बड़े देखिये, जब सपने आंखों में पलेंगे तभी वे साकार होंगे। यह मेरा मानना है, जरुरी नहीं कि, मेरे मत से सब सहमत हों। बड़े सपने देखते वक्त, बस इसका ख्याल जरुर रखिये कि, ख्वाबों के टूटने पर, आपमें उन्हें दुबारा देखने का माद्दा शेष बचता है या नहीं। अगर आप टूटे/ बिखरे ख्वाबों को दुबारा जोड़कर उन्हें सजाने की कलाकारी नहीं जानते हैं, तो पलकों में ख्वाब पालने का लालच छोड़ दीजिए। वरना धोवी के से कुत्ते की हालत होते देर नहीं लगेगी। जो न घर का रहता है और न घाट का।

कमोबेश कुछ ऐसी ही गुस्ताखियां सन् 2014 में देश में हुए लोकसभा चुनाव में मीडिया के कुछ तथाकथित "ज्ञानी" कर बैठे हैं। ख्वाब पालने का अगर मुझे अधिकार है, तो भला उन्होंने भी ख्वाब पालकर कोई गुनाह नहीं कर दिया। बस गुनाह यह किया कि, टूटे ख्वाबों को संजोने की औकात इन सबकी नहीं थी। ताव से लबरेज थे। अब तक की बितायी तमाम उम्र गलतफहमियों की गली-बस्तियों में गुजारी थी। हकीकत से जब पाला पड़ा, तो पसीने से तर-ब-तर हो गये मेहरबां। ख्वाब तो पाल बैठे बिचारे संसद को शीशे में तराश डालने के, मगर जब सपने टूटे तो सड़क पर इनके ही अरमां रोते-सिसकते नजर आ गये।
अगर यूं कहें कि, मीडिया के तमाम  कथित काबिल मीडिया के मठाधीशों को लोकसभा 2014 के चुनावों ने उन्हें उनकी "औकात" बता दी। उन्हीं के आईने में उन्हें उनका चेहरा दिखा दिया। वो कुरुप और बदसूरत चेहरा, जिसे वो मीडिया में अक्सर क्रीम-पावडर से लीप-पोतकर, खुद को ज्ञान का स्वामी विवेकानंद साबित करने में दो दशक से जुटे हुए थे। मीडिया के जब यह मठाधीश स्टूडियो में बैठकर ज्ञान बघारते थे, तो लगता था, कि इनसे बड़ा काबिल देश में दूसरा नहीं है। कैमरे की ताकत के बल पर, जिसे चाहते हड़का देते। जिसकी चाहते पैंट उतार देते। फिर सामने वाला बिचारा चाहे आईदा (भविष्य में) का देश का प्रधानमंत्री बनने की ही योग्यता क्यों न रखता हो।
भला हो 2014 के लोकसभाव चुनावों का, जो ऊंट को  (मीडिया के वे कथित मठाधीश/ ज्ञानी जो मीडिया पर थूककर चले थे संसद में नेता बनने) पहाड के नीचे  । मीडिया के जो चंद मठाधीश/ ज्ञानी सांसद बनकर नेताओं/ नेतागिरी की ऐसी-तैसी करने गये थे, अब जनता में मुंह कैसे दिखायेंगे। वही "मुंह" जिस पर वो क्रीम-पावडर पोतकर स्टूडियो में बैठकर, सबसे सुंदर (मेरी नजर में कथित रुप से) बनाकर पेश करते थे।
छोड़िये भूमिका बनाना। आते हैं मुद्दे पर। मीडिया में काशीराम का थप्पड़ खाकर पत्रकार बने, एक साहब  टीवी के परदे पर "डंके की चोट" पर ही चीखते/ चिंघाड़ते थे। पूरे मीडिया के करियर में अपनी कौम छिपाते रहे। न्यूज चैनल से विदाई की नौबत आई, तो बिचारे को देश का ख्याल आया। मरता क्या न करता। मीडिया की आड़ में आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल से जान-पहचान थी। सो "आप" की टोपी पहनकर केजरीवाल में "भक्ति" जता दी। चांदनी चौक से टिकट भी मिल गया। सांसद बनने का सपना देखा।  सांसद बनने की चाहत में इस हद तक गिर गये, कि जिस कौम को पूरे पत्रकारिता के करियर में छिपाते रहे, चांदनी चौक के वोटरों को रिझाने के लिए अपनी कौम का हवाला देने से भी बाज नहीं आये। चूंकि यह मीडिया और कैमरे का भोकाल नहीं था, जो किसी के सामने भी कैमरा अड़ा/ अड़वाकर उसे तान देते। यहां दांव उल्टा पड़ा। यह जनता थी। जिसके पास कैमरा नहीं था। न भोकाल गांठने के लिए कोई स्टूडियो। जनता ने बिना भोकाल दिये ही पत्रकार साहब के तमाम पत्रकारिता की जिंदगी के दंभ को धीरे से "डस" लिया। चुनाव में औंधे मुंह हार का मुंह दिखवाकर।
एक मोहतरमा मीडिया से निकलीं। उन्होंने भी "आप" का दामन थामा। दिल्ली में जब "आप" की हवा वही, बिचारी यह मोहतरमा तब भी विधान-सभा चुनाव हार गयीं। हारीं तो खुद थीं, ठीकरा फोड़ दिया अपने भाई के सिर। इनका कहना था कि भाई ने हरवा दिया। इस हार से भी बाज नहीं आयीं, सो गाजियाबाद से सांसद बनने का सपना संजोकर फिर उतर गयीं चुनाव मैदान मे। शायद इस उम्मीद में दिल्ली में हारने के बाद थोड़ी-बहुत जो बची थी, उसे गाजियाबाद में बहने वाली हिंडन नदी में इलेक्शन हारकर बहा आयें। और हुआ भी वैसा ही।
एक दाढ़ी वाले साहब देश में "स्टिंग-ऑपरेशन" का खुद को खुदा मानते । देश के नंबर वन हिंदी न्यूज चैनल से लेकर और न जाने कहां-कहां क्या क्या कर आये? एक दिन बैठे-बिठाये जिंदगी भर की सब जमा-पूंजी की ऐसी-तैसी कराने की सूझी। अरविंद केजरीवाल से मिलने गये। दिल्ली से "आप" की पार्टी पर लोकसभा का चुनाव लड़ बैठे। इलेक्शन में हारकर इस हाल में पहुंच गये हैं, कि अपने बदन पर अपने ही फटे कपड़े देख कर बिलख कर रो पड़ते हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि, आखिर पत्रकारिता छोड़कर नेता बनने की सलाह उनके जेहन में आई ही क्यो थी? अब इन्हें कौन समझाये, कि विनाशकाले बुद्धि विपरीत इसे ही कहते हैं।
एक साहब ने इराक के पत्रकार मुंतधर अल-ज़ैदी की तर्ज पर भारत के तत्कालीन गृह-मंत्री पी. चिंदंबरम् के ऊपर जूता फेंककर दे मारा। इनके दिन उसी वक्त से खराब हो गये। जूताबाजी के चक्कर में अखबार ने इन्हें निकालकर बाहर कर दिया। यह साहब लंबे समय से दिल्ली की गलियों में गायब थे। 2014 में माहौल अनुकूल देखा तो अरविंद केजरीवाल को विश्वास में ले लिया, कि सांसद बनकर दिखा दूंगा। चुनाव लड़े और परिणाम आते ही परदे से गायब हो गये।
मेरे कहने का मतलब यह कतई नही है, कि मुझे किसी ने टिकट नहीं दिया। अगर मुझे कोई टिकट देता तो मैं जीत जाता। मैं कतई नहीं जीतता, लेकिन जो
1-लबालब लाखों रुपये की तन्ख्वाह से बेजार होकर चुनाव लड़ने गये वे अब क्या करेंगे?
2-जिन्होंने सपने देखे थे संसद में बैठने के, और रहे नहीं "सड़क"  के भी। वे अब क्या करेंगे?
3-क्या फिर जायेंगे मीडिया में वापिस लालाओं की लल्लो-चप्पो/ ठोड़ियां पकड़कर, एड़ियां रगड़कर दो जून की रोटी के जुगाड़ में,
4-या फिर खायेंगे गुरुद्वारे में!
5-मीडिया में दूसरे के नाम का दुरुपयोग और दूसरे के कंधों के बल पर आगे बढ़ने वाले, अब अपने टूटे सपनों को जोड़ने की कला में "अज्ञानी" कैसे जीयेंगे?
क्योंकि नेता बन नहीं पाये और मीडिया के होकर चैन से न खुद कभी रहे, न किसी के रहने दिया।

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